Saturday, June 1, 2019

लो स्वामिनि मोहिँ अपनाय रे।
दर दर ठोकर खाऊँ तिहारोइ, दासी दास कहाय रे।
नित गुन गान करूँ तुम्हरोई, तदपि न अहमिति जाय रे।
साँची झूठ न आपुन निंदा, सुनतहिं मन हरषाय रे।
सब जानत पै मानत नाहीं, यह अचरज दरसाय रे।
तुम ‘कृपालु’ मोहिं जानति नीकी, पुनि क्यों बेर लगाय रे।।
भावार्थ:- हे स्वामिनी जी! अब तो मुझे अपना लो। तुम्हारा ही कहला कर दर-दर की ठोकर खा रहा हूँ। यद्यपि तुम्हारे ही गुणों को गाता हूँ फिर भी अहंकार नहीं जाता। अपनी झूठी सच्ची निन्दा को सुनकर मन को आनन्द नहीं मिलता। वह केवल प्रशंसा ही चाहता है। आश्चर्य तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी नहीं मानता। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि हे किशोरी जी! तुम तो हृदय की जानने वाली हो फिर क्यों देर कर रही हो।

(प्रेम रस मदिरा:-दैन्य-माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।

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