Friday, March 16, 2018

कामना एवं प्रेम....!!!
कामना ' प्रेम ' का विरोधी तत्व है । लेने - देने का नाम व्यापार है । जिसमें प्रेमास्पद से कुछ याचना की भावना हो , वह प्रेम नहीं है । जिसमें सब कुछ देने पर भी तृप्ति न हो , वही प्रेम है । संसार में कोई व्यक्ति किसी से इसलिये प्रेम नहीं कर सकता क्योंकि प्रत्येक जीव स्वार्थी है वह आनन्द चाहता है , अस्तु लेने - लेने की भावना रखता है । जब दोनों पक्ष लेने- लेने की घात में हैं तो मैत्री कितने क्षण चलेगी ? तभी तो स्त्री - पति , बाप - बेटे में दिन में दस बार टक्कर हो जाती है । जहाँ दोनों लेने - लेने के चक्कर में हैं , वहाँ टक्कर होना स्वाभाविक ही है और जहाँ टक्कर हुई , वहीं वह नाटकीय स्वार्थजन्य प्रेम समाप्त हो जाता है । वास्तव में कामनायुक्त प्रेम प्रतिक्षण घटमान होता है ,जबकि - दिव्य प्रेम प्रतिक्षण वर्द्धमान होता है । कामना अन्धकार - स्वरुप है , प्रेम - प्रकाश स्वरुप है ।
-----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
समय का सदा सदुपयोग करना मनुष्य का सर्वोत्तम सिद्धान्त है। सदुपयोग सत पदार्थों के चिन्तन से ही सम्भव है। सत्य पदार्थ केवल श्यामा श्याम का नाम , रूप,लीला , गुण, धाम एवं जन ही हैं।
--------- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

जिस जीव के हृदय मे पश्चाताप है , वह परम उन्नति कर सकता है । परंतु जिसे अपने बुरे कर्मों पर दुःख नहीं होता , जो अपनी गिरि दशा का अनुभव नहीं करता , जिसे समय के व्यर्थ बीत जाने का पश्चताप नहीं , वह चाहे कितना भी बड़ा विद्वान हो , कैसा भी ज्ञानी हो , कितना भी विवेकी हो , वह उन्नति के शिखर पर कभी नहीं पहुँच सकता । जहाँ पूर्वकृत कर्मों पर सच्चे हृदय से पश्चाताप हुआ , जहां सर्वस्व त्याग कर श्री कृष्ण के चरणों मे जाने की इच्छा हुई , वहीं समझ लो उसकी उन्नति का श्री गणेश हो गया । वह शीघ्र ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा।
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

व्यर्थ चिंता मत करो , तुम सिर्फ हरि-गुरु का रुपध्यान करो और रो रोकर पुकारो मैं आ जाऊंगा ।
जैसे मैंने तुम्हें इस बार ढूंढ लिया था वैसे आगे भी ढूंढ लूंगा; यह मेरा काम है आप उसकी चिंता न करें ।
तुम सिर्फ निष्काम भाव से हरि-गुरु में ही अनन्य होकर साधना करते रहो , मेरा काम मै करुंगा ही जैसे सदा करते आया हूॅ, तुम अपना काम (मेरे द्वारा दिऐ उपदेशो के अनुसार साधना) करते रहो बस !! बाकी सब मेरा काम है मैं स्वयम् कर लूंगा, दृढ़ विश्वास करके साधना-पथ पर चलते रहो ।

----- तुम्हारा 'महाराजजी' ।

एक बड़ी विलक्षण बात यह है कि लोग बड़े दावे से यह कहा करते हैं कि संसार मिथ्या है,इसमें सुख नहीं है,फिर भी संसार की ही ओर तेजी से भागे जा रहे हैं। इसका एक रहस्य है,गंभीरतापूर्वक समझिये।
हम लोग संसार-सम्बन्धी धन,पुत्र,स्त्री,पति आदि के अभाव में झुंझला कर,'संसार मिथ्या है',ऐसा कह देते हैं। परन्तु ज्यों ही उपर्युक्त धन-पुत्रादि मिल जाते हैं,पुन: इसी में लिपट जाते हैं। वस्तुत:संसार को मिथ्या नहीं कहते। यथा-जब एक पिता का पुत्र मर जाता है तो उसके शव को पिता आदि श्मशान ले जाते हैं एवं यह नारा लगाते जाते हैं कि 'राम नाम सत्य है'। इस नारे का वास्तविक अर्थ तो यही है कि पुत्र किसी का नहीं होता,व्यर्थ ही उसमें आसक्त होकर लोग अशान्त होते हैं,सत्य वस्तु तो एकमात्र ईश्वर ही है। किन्तु ,ऐसा भाव पिता आदि का नहीं होता। आप कहेंगे,अवश्य होता होगा। परन्तु इसका परिचय तो तभी मिल सकता है जब कदाचित् पुत्र पुन: जीवित हो उठे। तब पिता आदि तत्क्षण 'राम नाम सत्य है' का नारा बन्द कर देंगे,क्योंकि अब बेटा सत्य है। यहाँ तक कि शव को जलाने के बाद लौटते समय भी कोई 'राम नाम सत्य है' नहीं बोलता। इसका अन्तरंग रहस्य कुछ और है। वह यह कि संसार में ऐसा कोई ही तत्त्वज्ञानी गृहस्थी होगा जो 'राम नाम सत्य है' को मंगलवाचक मानता हो। यदि किसी पिता की पुत्री श्वसुरालय के लिए विदा हो रही हो,पालकी चलने वाली हो और कोई महानुभाव उस समय 'राम नाम सत्य है' बोल दें तो कदाचित् वह पिटे बिना न छूटे। यदि राम नाम मंगलमय है, इतना भी ज्ञान किसी को होता तो वह तो बड़ा प्रसन्न होता कि हमारी पुत्री का यह गृहस्थ प्रवेश परम मंगलमय होगा। किन्तु,ऐसे आस्तिक गृहस्थी अंगुलियों पर गिने जाने वाले ही होंगे। क्योंकि समस्त संसार के लोग 'राम नाम सत्य है' का अर्थ यही लगाते हैं कि यदि यह नारा लगाया गया तो शायद कोई मर जायगा।अब सोचिये,राम नाम अमरत्व देने वाला है किन्तु,आस्तिक समाज उसका क्या सदुपयोग कर रहा है! वस्तुस्थिति तो यह है कि धन,पुत्र,स्त्री,पति आदि को ही हम लोग आनन्द का केन्द्र समझते हैं और उन्हीं की रक्षा एवं वृद्धि के लिए प्राय: ईश्वर को मानते हैं। तब फिर भला धन,पुत्रादि के अभाव को हम श्रेष्ठ कैसे मानेंगे ? हम तो धन नष्ट होने पर ही कहेंगे कि लक्ष्मी चंचल है,वह किसी एक की नहीं है। यही हमारा ज्ञान है जिसका भावार्थ पूर्ण अज्ञान ही है। जब-जब संसार सम्बन्धी किसी प्रिय वस्तु का अभाव होता है,हम यह कह देते हैं कि संसार मिथ्या है। किसी पुत्र ने पिता को डाँटा,किसी ने अपमान किया,बस ज्ञान हो गया कि पुत्र,पत्नी आदि सब स्वार्थी है,सब धोखेबाज हैं। मैं किसी से प्यार न करुँगा,मैंने जान लिया,समझ लिया,किन्तु दो मिनट बाद जैसे ही पुत्र या स्त्री ने कहा-क्षमा कीजियेगा,मैं भांग पीकर कुछ अनर्गल शब्द बोल गया था,आप तो मेरे सर्वस्व हैं,'बस,तुरन्त आपका ज्ञान बदल गया एवं आप कहने लगे-'वही तो मैं सोच रहा था कि मेरा पुत्र अथवा स्त्री अथवा पति ऐसा कैसे कह सकता है!'अर्थात् पुत्र एवं पति सब स्वार्थी हैं,यह ज्ञान अभाव में हुआ था,जब वे अनुकूल हो गये तब ज्ञान बदल गया। बस,यही स्थिति हमारी सर्वत्र, सर्वदा रहती है।भावार्थ यह कि हम लोग संसार के अभाव से घृणा करते हैं,संसार से नहीं।

----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

Monday, March 12, 2018

You would be familiar with the word satsang. Sat means "Saint" or "Divine personality" and sang means "to associate". If sat, the Saint, is genuine and our sang, association with him, is also genuine, then we will attain our ultimate goal of God-realization and Divine Bliss. The Vedas state:
tadvigyānārthaṁ sa gurumevābhigachchhet
samitpāṇiḥ śhrotriyaṁ brahmaniṣhṭham (Mundakopanishad)

A true Saint is one who has complete knowledge of the scriptures,and also practical realization of God. He should be able to impart to us the theoretical knowledge of the Vedas. Furthermore, he should have attained Divine vision of God. He must possess the treasure of Divine Love Bliss. If someone has a cheque book but nothing in the bank, what can the cheque book achieve? If one merely talks about God, without having surrendered to Him and having attained Divine Love, then that talk will merely increase ones pride.
----JAGADGURU SHRI KRIPALU JI MAHARAJ.

कुछ समय का नियम बनाकर प्रतिदिन श्यामसुंदर का स्मरण करते हुए रोकर उनके नाम-लीला-गुण आदि का संकीर्तन एवं स्मरण करो एवं शेष समय में संसार का आवश्यक कार्य करते हुए बार-बार यह महसूस करो कि श्यामसुंदर हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहें हैं, और उन्हें आप दिखा-दिखा कर कार्य कर रहे हैं। इस प्रकार कर्म भी न्यायपूर्ण होगा एवं थकावट भी न होगी। एक बार करके देखिये।
------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
"संसार में हमें 'सुख' दिखायी पड़ता है, पर वास्तव में संसार का सुख ,सुख नहीं धोखा है।
-----श्री महाराजजी।"
''कृपा सागर कृपालु''........!!!
हे कृपा सागर 'कृपालु गुरुदेव'! तुम्हारी महिमा अपरम्पार है । तुम्हारे ऋण से हम करोड़ों कल्प में भी उऋण नहीं हो सकते । निरन्तर अपराध किये जाने पर भी तुम अपनी असीम करुणा के कारण हम पामर जीवों को गले लगाते हो । तुम्हारे द्वार पर कोई भी आ जाय सदाचारी हो या दुराचारी, तुम्हारा प्रशंसक हो अथवा निन्दक, पापी हो या भक्त, निर्धन हो या धनवान, विद्वान हो या अपढ़ गँवार, तुम उसे अपने प्रेम पाश में बाँधकर उसकी आध्यात्मिक गरीबी दूर करके उसे वह धन प्रदान करते हो कि वह सदा सदा के लिए मालामाल हो जाता है ।
जय श्री राधे।
भगवान ने दया करके मानव देह दिया और आप लोग जब गर्भ में थे तब वादा किया था की महाराज बहुत दु:ख मिल रहा है माँ के पेट में, गंदगी में, सिर नीचे पैर ऊपर कितना कोमल शरीर, हमको निकालो, आपका ही भजन करेंगे आपको पाने का उपाय खोजेंगे अबकी बार मुझे निकालो । और बाहर आया मम्मी ने कहा ए मेरा भजन कर, पापा ने कहा ए मैं तेरा हूँ । यह सब लोगों ने धोखा देकर बेचारे को बेबकूफ बना दिया, भगवान को दिया हुआ वादा भूल गया और भगवान को छोड़ इन लोगों को भजने लगा । और अगर जागा भी, कोई संत मिल गया और जगा दिया तो कल से करेंगे, अवश्य करेंगे अवश्य । आज जरा काम आ गया कल से करेंगे अवश्य।
तन का भरोसा नहीं गोविंद राधे ।
जाने कब काल तेरा तन छिनवा दे ॥

------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

एक सुन्दर स्त्री को एक व्यक्ति रिवाल्वर से मारने जा रहा है एवं दूसरा व्यक्ति उस सुन्दरी को बचाने के लिये स्वयं सीना ताने खड़ा है। ऐसा क्यों ? पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि वह सुन्दरी रिवाल्वर मारने वाले की स्त्री है किन्तु सीना ताने हुए व्यक्ति से प्रेम करती है। अब सोचिये सुन्दरता में सुख होता तो दोनों को बराबर-बराबर मिलता।
जिस वस्तु में बार-बार सुख का चिन्तन किया जाता है उसी वस्तु में आसक्ति हो जाती है।
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
तुम्हारा Aim खाना नहीं है, तुम्हारा Aim आत्मा का जाे लक्ष्य है, आत्मा की जाे खुराक है, आत्मा का जाे भाेज्य पदार्थ है वह है ,अर्थात् भगवत्प्राप्ति। ताे इस बात का बार-बार जब चिन्तन करे काेई जीव।ये बीमारी लग जाय़ उसके पीछे जैसे संसार में किसी काे प्यार की बीमारी लग जाती है,किसी लड़के काे किसी लड़की की बीमारी लग गई या किसी दुश्मन से दुश्मनी की बीमारी लग गई , ताे उसका लगातार चिन्तन चलता रहता है जागते, बैठते, साेते हर समय हर जगह।ऐसे अगर हर समय तुम्हारा चिन्तन प्रारम्भ हाे जाये कि मैं जीव हूँ, मैं श्रीकृष्ण दास हूँ, मेरा असली रुप ये है,ये मेरा मानवदेह मुझे ईश्वर प्राप्ति के लिये मिला है और फिर कल ये रहे न रहे,इसलिये आज करना है, अभी करना है, तुरन्त करना है, ये निश्चय जब तक आप पक्का नही करेंगें,तब तक अनन्त सन्त मिले,भगवान की गाेद में आप बैठे हैं - फिर भी काेई लाभ नहीं।
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

तुमको बर्तन साफ़ करना पड़ेगा। बर्तन साफ़? क्या मतलब?
अन्तःकरण शुद्धि, पहला काम।अन्तःकरण की शुद्धि अर्थात् ये जो डिसीज़न अनन्त जन्मों से हम करते आये हैं कि संसार में ही आनन्द है, ‘ही’। हमको नहीं मिला ये बात अलग है। है। एक लाख में नहीं मिला, एक करोड़ में है,एक करोड़ में नहीं मिला, एक अरब में है। एक कांस्टेबल बनकर के नहीं मिला,सब इंस्पेक्टर को होता होगा, कोतवाल है वो...।अरे! नहीं, उसके भी ऊपर है वो एस॰पी॰ को होगा,आई॰जी॰ को होगाअरे! क्या कल्पना कर रहा है पागल,संसार मात्र में कहीं आनन्द नहीं है—
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

सब जगह एक हाल है,बल्कि जितना बड़ा आदमी संसार में आप लोग बोलते हैं न,
उतना ही वो दुःखी है।

----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

We all devotees of Shree Maharaj ji always experience one thing that, our life was just meaningless before meeting Maharaj ji. We didn't even know the purpose of our lives. Always wandering here and there just for the satisfaction of immortal desire for happiness. We had made innumerable relationships Mother, Father, Sister, Brother etc. but none could satisfy.
Life was just stationary before Maharaj ji. Heart was just dead. Mind was tired of this world.
But after getting Maharaj ji, the seed of divine love is spurting in our hearts. This we all realize. But we must think, that we are all his souls, his children, his parts. That is why, in 7 million people only few get this rare opportunity to be in his association. Isn't this is grace. Only by his grace we are at this stage. Always loving us. keep on gracing us every time. We have uncountable sins in backlog, lots of sinful activities on our account but in spite of our shortcomings, Maharaj ji always grace us. With even fraction of time devoted in his remembrance, he grace us with so much love.
He really loves us very much. Care for us. He is our real relative, real friend, real mother father everything. He is our true companion. We must listen to him. We must follow him. We must cry out loud and call him. He is doing so much for us. So much so much. So much for our welfare. He knows what is best for us, what is harmful for us. We must surrender ourselves to his lotus feet.

Radhey- Radhey.
जय हो जय हो सद्गुरु सरकार बलिहार बलिहार। तेरी महिमा अपरंपार बलिहार बलिहार।।
जिनके दिव्यज्ञान से युक्त प्रवचन सभी शंकाओ का समाधान करते हुए भक्तियोग का सीधा सरल मार्ग प्रशस्त करते हैं। जिन्होनें भारत की अतुल संपत्ति शास्त्रों ,वेदों,उपनिषदों एवं अन्यानय धर्म ग्रन्थों के दुर्लभ ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाकर ऋषि मुनियों की परंपरा को पुनर्जीवन प्रदान किया है। ऐसे भक्तियोग रसावतार सद्गुरु देव के श्री चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।
समस्त शास्त्रों वेदों के गूढ़तम सिद्धांतों को भी सरल सरस रूप में प्रस्तुत करके जन साधारण के मस्तिक्ष में बिठाना,जिनके व्यक्तित्व की विलक्षणता रही है। ऐसे ज्ञान के अगाध समुद्र को कोटि-कोटि प्रणाम।
जिन्होंने भारतीय संस्कृति ,सभ्यता की ज्योति को शास्त्रीय ज्ञान के द्वारा ऐसा प्रज्ज्वलित कर दिया है जो कभी नहीं बुझेगी। सनातन धर्म सनातन रहेगा । ऐसे महामनीषी को शत शत प्रणाम।

यह ध्यान रहे कि जब तक मन ईश्वर के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी राग या द्वेष युक्त (आसक्त) रहेगा,तब तक ईश्वर-शरणागति असम्भव है।
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
आपकी जितनी आयु शेष है, यदि उसका एक-एक श्वास आपने भगवान् काे साैंप दिया ताे सारे पाप-तापाे से मुक्त हाेकर आप इसी जन्म में भगवान काे पाकर अनन्त जीवन की साध पूरी कर सकते हैं। आशा है,आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देंगे।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

सैकड़ो तप,व्रत,तीर्थ,उपवास,आदि कर लें तो भी जब तक भगवान् में अपनापन नहीं है,तब तक सब बेकार है।
-----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

जिससे प्यार करोगे मरने के बाद उसी की प्राप्ति होगी। तुमने बाप से प्यार किया ? हाँ। तुम्हारा बाप मरने के बाद गधा बनेगा। अच्छा। तो ? तुम गधे के बच्चे बनोगे। बनना पड़ेगा। तुम बच नहीं सकते। क्योंकि पिता की तुमने भक्ति की है। जिससे भी प्यार करेगा जीव उसी की प्राप्ति होगी मृत्यु के पश्चात।
तो भगवान् उनका नाम , उनका रूप , उनका गुण , उनकी लीला , उनके धाम , उनके संत इतने का नाम है , ' ईश्वरीय क्षेत्र '। इसमें कहीं भी मन रहे तो भगवद विषय मिलेगा। माया से उतीर्ण हो करके भगवान् के दिव्यानंद को प्राप्त करोगे।
------ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

श्री महाराजजी से प्रश्न: हमें अपने चिंतन के प्रति सावधान क्यों रहना चाहिए?
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर : क्योंकि हमारे उत्थान और पतन का कारण हमारा चिंतन है। भगवदविषयों के विपरीत चिंतन से हमारी बुद्धि मोहित हो जाती है।