Tuesday, September 5, 2017

सखी ! मैं, बिकी आजु बिनु दाम |
कियो न मोल – तोल कछु मोते, लियो मोल घनश्याम |
करि तन, मन, अरु प्रान निछावरि, भइ जग सों बेकाम |
अब सोइ नाम – रूप – गुन – लीला, सुमिरत आठों याम |
भुक्ति – मुक्ति तजि पियत प्रेम – रस, कान्त भाव निष्काम |
जाको चहत ‘कृपालु’ पिया बस, सोइ सुहागिनि बाम ||

भावार्थ – ( एक गोपी का प्यारे श्यामसुन्दर से प्रथम – मिलन एवं उसका अपनी सखी से कहना |)
अरी सखी ! आज मैं तो बिना मोल के ही बिक गई | उस प्यारे श्यामसुन्दर ने बिना कुछ मोल – तोल अर्थात् बात – चीत किये ही मुझे मोल ले लिया, अर्थात् सदा के लिए अपनी बना लिया | मैं भी तन, मन, प्राण आदि सर्वस्व देकर संसार से सदा के लिए पृथक् हो गई | अरी सखी ! अब मैं श्यामसुन्दर के नाम, रूप, गुण, लीला का निरन्तर ही स्मरण कर रही हूँ | संसार के सुख एवं मोक्ष आदि के सुख, सभी को छोड़कर कान्तभावयुक्त निष्काम – प्रेम का ही निरंतर पान कर रही हूँ | ‘श्री कृपालु जी‘ कुछ लम्बी साँसें भरते हुए कहते हैं कि जिसको पिया चाहता है वही सुहागिनी स्त्री हो सकती है अर्थात् मुझ अभागिनी के भाग्य में ऐसा विधाता ने अभी तक विधान ही नहीं रचा |

( प्रेम रस मदिरा मिलन – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति

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