Monday, May 28, 2018
श्री महाराजजी से प्रश्न:- संसार में और भगवत क्षेत्र में हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए?
श्री महाराजजी द्वारा उत्तर:- भगवान से प्यार न करने के कारण आत्मशक्ति गिर गयी है इसलिए हृदय कठोर नहीं रह सकता संसार में,पिघल जाता है। यह दोष है। तो जितना भगवान की और पिघले उतना इधर कठोर हो। ऐसा balance होना चाहिए। संसार अलग है भगवान अलग है। दोनों में अलग-अलग हिसाब किताब है। चालाकी होनी चाहिए; संसार में कोई सिर काट के चरणों में रख दे तो भी यह न समझो कि यह हमारे सुख के लिए ऐसा कर रहा है। संसार में अपने स्वार्थ के लिए ही सब लोग काम करते हैं,यह सिद्धान्त को सदा याद रखो और जब भगवान के area में जा रहे हो तो वहाँ complete surrender करो। वहाँ बुद्धि लगाया कि बरबाद हुए। बड़े बड़े सरस्वती व्रहस्पति का सर्वनाश हो गया,साधारण जीव कि क्या गिनती है? तो दोनों एरिया अलग अलग हैं,अलग अलग सिद्धान्त है,अलग अलग प्रक्रियाएँ हैं।
कृपया इसे ध्यान से पढें........!!!
श्री महाराजजी के पुराने सत्संगी जो उनके अत्यंत निकट थे,उन्होने बताया।
'एक बार महाराजजी मसूरी में थे तो वहाँ एक पुराना सत्संगी आया।जब वो महाराजजी के पास गया तो महाराजजी ने उससे पूछा,"तू आ गया?"
सत्संगी ने कहा"हाँ महाराजजी, आपकी कृपा से आ गया"। फिर महाराजजी किसी अन्य सत्संगी से वार्ता करने लगे और पुराने सत्संगी की ओर ध्यान नहीं दिया।
फ़िर थोड़ी देर बाद उसी पुराने सत्संगी से महाराजजी ने पूछ, "तू आ गया? " और उसने भी वही उत्तर दिया कि "हाँ महाराजजी, आपकी कृपा से आ गया"।
फिर महाराजजी किसी और सत्संगी के साथ व्यस्त हो गए। थोड़ी देर बाद महाराजजी ने उसी सत्संगी से कहा"तुम जानते हो कृपा क्या होती है ?"
सत्संगी ने कहा"नहीं महाराजजी,आप ही बताइये।".
तब महाराजजी ने कहा "एक बार श्री कृष्ण कहीं जा रहे थे और उन्हे राधारानी से विरह महसूस हो रहा था।उन्हें बहुत ज्यादा विरह सता रहा था, फिर वे किसी वृक्ष के सहारे गिरे, और उनका हाथ किसी गंदे तालाब मे जा गिरा। जब उन्होने अपना हाथ बाहर निकाला तो उन्होने देखा कि उनके हाथ मे बहुत सारे कीड़े हैं। ठाकुरजी ने सोचा, "अब ये कीड़े मेरे हाथ मे आएँ हैं तो मै इनको फिर उस गंदे तालाब मे नही डालूंगा,मैं इन्हें मनुष्य शरीर दूंगा।पर फिर उन्होने सोचा कि सिर्फ मनुष्य देह से काम नहीं बनेगा,मैं धरती पर अवतरित होकर इनका गुरु स्वयं बनूंगा।"
फिर महाराजजी ने तेज स्वर मे कहा"तुम सब वही कीड़े हो"।
सत्संगी ने कहा"हाँ महाराजजी, आपकी कृपा से आ गया"। फिर महाराजजी किसी अन्य सत्संगी से वार्ता करने लगे और पुराने सत्संगी की ओर ध्यान नहीं दिया।
फ़िर थोड़ी देर बाद उसी पुराने सत्संगी से महाराजजी ने पूछ, "तू आ गया? " और उसने भी वही उत्तर दिया कि "हाँ महाराजजी, आपकी कृपा से आ गया"।
फिर महाराजजी किसी और सत्संगी के साथ व्यस्त हो गए। थोड़ी देर बाद महाराजजी ने उसी सत्संगी से कहा"तुम जानते हो कृपा क्या होती है ?"
सत्संगी ने कहा"नहीं महाराजजी,आप ही बताइये।".
तब महाराजजी ने कहा "एक बार श्री कृष्ण कहीं जा रहे थे और उन्हे राधारानी से विरह महसूस हो रहा था।उन्हें बहुत ज्यादा विरह सता रहा था, फिर वे किसी वृक्ष के सहारे गिरे, और उनका हाथ किसी गंदे तालाब मे जा गिरा। जब उन्होने अपना हाथ बाहर निकाला तो उन्होने देखा कि उनके हाथ मे बहुत सारे कीड़े हैं। ठाकुरजी ने सोचा, "अब ये कीड़े मेरे हाथ मे आएँ हैं तो मै इनको फिर उस गंदे तालाब मे नही डालूंगा,मैं इन्हें मनुष्य शरीर दूंगा।पर फिर उन्होने सोचा कि सिर्फ मनुष्य देह से काम नहीं बनेगा,मैं धरती पर अवतरित होकर इनका गुरु स्वयं बनूंगा।"
फिर महाराजजी ने तेज स्वर मे कहा"तुम सब वही कीड़े हो"।
जय श्री राधे।
साधक को अपनी शरणागति पर ध्यान देना चाहिए। वैसे आप लोगों को लगता है कि हम पूर्ण शरणागत हैं लेकिन वस्तुतः ऐसा है नही। छोटी सी भी बात आप से कही जाती है, आपका तुरंत उत्तर होता है नहीं हमने तो ऐसा नहीं किया अथवा ऐसा किया तो नहीं था न जाने कैसे हो गया? बाहर से आप मान भी लें लेकिन भीतर से अपनी गलती स्वीकार नहीं करते। गुरु आपके अन्दर की बात नोट करते हैं। वह परीक्षा भी लेता है। और साधक परीक्षा में फेल हो गया तब भी गुरु बारम्बार परीक्षा लेना बंद नहीं करता। जिस कक्षा का जीव है उसी कक्षा का परचा उसको दिया जाता है। अगर आप परीक्षा देने से घबराएंगे तो आप कभी भी भगवद प्राप्ति नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार बार बार परीक्षा देते हुए हमें शरणागति को पूर्ण करना है।
............जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
............जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
अरे मनुष्याे! श्रद्धा कराे, श्रद्धा पैदा कराे, गुरु वाक्य पर पूर्ण विश्वास करो। पहले ही अनुभव नही हाेगा। अजी पहले अनुभव कराओ ताे हम विश्वास करें। पहले अनुभव कराओ, पहले डिग्री मिल जाये उसके बाद पढ़ाई शुरु करेंगे। पहले फल मिल जाये,फिर बीज डालेंगे खेत में। संसार में ऐसा कहीं हुआ है? बस,भगवान् के एरिया में आप इम्पाँसिबल बात करना चाहते है।
------ जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
Saturday, May 12, 2018
आज्ञापालन ही अंतिम लक्ष्य है और प्रारम्भिक लक्ष्य है,और बीच में भी यही चलेगा। इसलिए सेवा को अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिये कि जिससे हमारे स्वामी को सुख मिले,वही क्रिया हमारे लिए कल्याणकृत है, हमारे सोचने के अनुसार नहीं। हमारी बुद्धि कभी वहाँ तक नहीं सोच सकती जहाँ तक हमारा स्वामी सोचता है। आज्ञापालन तो बहुत से लोग करते हैं ,लेकिन विपरीत चिंतन करके आज्ञापालन,हमको ऐसा कह दिया,करना तो पड़ेगा ही अब कह रहे हैं तो ,ये भीतर सोचा और गए ,गिर गए। अरे! मैंने कुछ कहा थोड़े ही। अरे! सोचा न ,भगवान के यहाँ कहने वहने का मूल्य नहीं हैं बस सोचने का मूल्य है , मन से चिंतन,इसलिए बहुत सावधान होकर हमें इस एक सेंटेन्स(sentence) पर बुद्धि को केन्द्रित करना है। सेवा पर। जिस आदेश से उनको सुख मिले बस वही सही है,हमारा ख्याल। फिर हमारा ख्याल लगाया तुमने ,फिर बुद्धि की शरणागति कहाँ है तुम्हारी । तुम गुरु की आज्ञा कहाँ मान रहे हो,ये तो अपनी आज्ञा मान रहे हो तुम। अत: क्षण-क्षण सावधान रहो और गुरु आज्ञा को ही सर्वोपरि मानो। अपनी दो अंगुल की खोपड़ी लगाना बंद करो,इसी ने तुम्हारे अनंत जन्म बिगाड़े हैं।
------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
व्यर्थ चिंता मत करो , तुम सिर्फ हरि-गुरु का रुपध्यान करो और रो रोकर पुकारो मैं आ जाऊंगा ।
जैसे मैंने तुम्हें इस बार ढूंढ लिया था वैसे आगे भी ढूंढ लूंगा; यह मेरा काम है आप उसकी चिंता न करें ।
तुम सिर्फ निष्काम भाव से हरि-गुरु में ही अनन्य होकर साधना करते रहो , मेरा काम मै करुंगा ही जैसे सदा करते आया हूॅ, तुम अपना काम (मेरे द्वारा दिऐ उपदेशो के अनुसार साधना) करते रहो बस !! बाकी सब मेरा काम है मैं स्वयम् कर लूंगा, दृढ़ विश्वास करके साधना-पथ पर चलते रहो ।
जैसे मैंने तुम्हें इस बार ढूंढ लिया था वैसे आगे भी ढूंढ लूंगा; यह मेरा काम है आप उसकी चिंता न करें ।
तुम सिर्फ निष्काम भाव से हरि-गुरु में ही अनन्य होकर साधना करते रहो , मेरा काम मै करुंगा ही जैसे सदा करते आया हूॅ, तुम अपना काम (मेरे द्वारा दिऐ उपदेशो के अनुसार साधना) करते रहो बस !! बाकी सब मेरा काम है मैं स्वयम् कर लूंगा, दृढ़ विश्वास करके साधना-पथ पर चलते रहो ।
----- तुम्हारा 'महाराजजी' ।
ऐ मन! भूत को भूल वो माफ़ हो जायेगा, उसको बैठ कर मत सोच कि मैंने यह पाप किया, मैंने ये जो किया सो किया, भूल जा, वर्तमान को देख। एक ही मन है दो नहीं है। अगर भूत का चिंतन करेगा, गंदी-गंदी बातें जो तुमने पाप की, की हैं तो फिर मन गंदा होता जायेगा। उसको भूल जा और वर्तमान में, मन में हरि गुरु को ही ला, शुद्ध कर दे मन। मन शुद्ध हो जायेगा, तो फ़िर गुरु दिव्य बना देगा स्वरूप शक्ति से। तब फ़िर लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी। भूत भविष्य सब बन जायेगा।
.......जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
अब देखो यहाँ चार-पाँच सौ आदमी आये हैं | अब अगर एक आदमी सोचे- हमसे तो बात ही नहीं किया | भई कोई संसारी व्यवहार हो कि चलो एक-एक आदमी को नम्बर-वार बुलाओ और एक-एक आदमी से बात करो, ऐसा तो नहीं | और जिससे बात करेंगे उससे अधिक प्यार है, ये सोचना गलत है | मेरी गोद में कोई बैठा रहे 24 घण्टे इससे कुछ नहीं होगा | उसका मन जितनी देर मेरे पास रहेगा बस उसको हम नोट करते हैं | खुले आम सही बात करते हैं | बदनाम हैं सारे विश्व में हम स्पष्ट व्यक्तित्व में साफ-साफ | आप ये ना सोचें कि हम बहिरंग अधिक सम्पर्क पा करके और बड़े भाग्यशाली हो गए | और एक को बहिरंग सम्पर्क न मिला, उससे बात तक नहीं किया मैंने तो उसका कोई मूल्य नहीं है हमारे हृदय में | ये सब कुछ नहीं | कुछ लोगों की आदत होती है बहुत बोलने की | वो जैसे ही लैक्चर से उतरेंगे सीधे हमारे पास आएंगे और बकर-बकर बोलते जाएंगे | कुछ लोग अपना हृदय में ही भाव रखते हैं, दूर से ही अपना आगे बढ़ते जाते हैं | मैं तो केवल हृदय को देखता हूँ | मुझे इन बहिरंग बातों से कोई मतलब नहीं है | और कभी बहिरंग बातों के धोखे में आना भी मत | इतना कानून याद रखना- “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम” | जितनी मात्रा में हमारा सरेण्डर होगा, हमारी शरणागति होगी उतनी मात्रा में ही उधर से फल मिलेगा |
.........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
Wednesday, May 2, 2018
अरे कृत्घन मन! धिक्कार है तुझे! जिन्होने तुझ नीच,अकिंचन व अधम को अपने श्री चरणों में स्थान दिया,तूने उस शरण्य की कृपा को भुला दिया। उनको ही दु:खी करने लगा। सच है जहाँ उन्होनें कृपालुता,क्षमाशीलता की पराकाष्ठा की है,वहीं तूने अधमता व अपराधशीलता की पराकाष्ठा की है। क्यों न आज से तू अपने प्यारे प्रभु को ही प्रसन्न करने का एक मात्र बीड़ा उठा कर चल। उसको प्रसन्न करने का एक मात्र यही उपाय है कि हम तुरंत यह प्रण करें कि " कोई हमसे कैसी भी कठोर से कठोर शब्दावली का प्रयोग करें,फिर भी उसके प्रति हम दुर्भावना आने ही न देंगे। सदा ही अपने दोषों को खोजकर उनको सुधारने में ही तत्पर रहेंगे।"
-------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
अनेक प्रकार के दुःख भोगते किसी प्रकार हमने करवट बदलना सीखा,फिर बैठना सीखा। फिर खड़े होना सीखा। बार-बार गिरे, रोये, कष्ट हुआ गिरने में,लेकिन अभ्यास करते-करते चलने लगे।
लेकिन फिर दुःख ही दुःख।
इधर से बाप की डाँट , माँ की डाँट, भाई की डाँट,सब बड़े-बड़े लोग डाँटते जा रहे हैं।
कहाँ जा रहा है? क्या मुँह में डाल लिया? बदतमीज़।
और मुझको अक्ल तो थी नहीं कुछ, क्या करूँ?
भूख लगी थी, सामने एक लकड़ी पड़ी थी,उठाया और मुँह में डाल लिया।
लो, उसकी भी डाँट पड़ गई।
लेकिन फिर दुःख ही दुःख।
इधर से बाप की डाँट , माँ की डाँट, भाई की डाँट,सब बड़े-बड़े लोग डाँटते जा रहे हैं।
कहाँ जा रहा है? क्या मुँह में डाल लिया? बदतमीज़।
और मुझको अक्ल तो थी नहीं कुछ, क्या करूँ?
भूख लगी थी, सामने एक लकड़ी पड़ी थी,उठाया और मुँह में डाल लिया।
लो, उसकी भी डाँट पड़ गई।
और कोई-कोई माँएँ तो खूब पिटाई करती हैं,
छोटे-से बच्चे की भी। रो दिये, क्या करें?
छोटे-से बच्चे की भी। रो दिये, क्या करें?
और बड़े हुये, स्कूल जाओ! और लो मुसीबत।अभी तक तो खेलते थे,कुछ मनोविनोद हो जाया करता था।
अब मम्मी-डैडी डंडा दिखा रहे हैं, स्कूल जा।
गये।वहाँ मास्टर बैठा है हौआ।
वो रुआब दिखाता है, डाँटता है,ऐ! क्या कर रहा है, ठीक से बैठो। अरे, मैं ठीक से बैठूँ, कितनी देर बैठूँ ठीक से?
घर में तो उछल-कूद करता था लगातार और यहाँ घंटों, दो घंटे, चार घंटे बैठे रहो।
ये आधीनता कितना कष्ट देती है। वो भी सहा।
अब मम्मी-डैडी डंडा दिखा रहे हैं, स्कूल जा।
गये।वहाँ मास्टर बैठा है हौआ।
वो रुआब दिखाता है, डाँटता है,ऐ! क्या कर रहा है, ठीक से बैठो। अरे, मैं ठीक से बैठूँ, कितनी देर बैठूँ ठीक से?
घर में तो उछल-कूद करता था लगातार और यहाँ घंटों, दो घंटे, चार घंटे बैठे रहो।
ये आधीनता कितना कष्ट देती है। वो भी सहा।
अब परीक्षा आई। ओह! धुक-धुक, कहीं फ़ैल न हो जायें।।पास हुये, फिर आगे की पढ़ाई की चिन्ता।
इसी में हमारी चौबीस-पच्चीस साल की उम्र
समाप्त हो गई। उसके बाद मेम साहब आई।
और मुसीबत खड़ी हुई। उनका डर, बार-बार...
कहाँ गये थे? अरे, कहीं थे, तुमसे क्या मतलब?
मतलब कैसे नहीं है?
इसी में हमारी चौबीस-पच्चीस साल की उम्र
समाप्त हो गई। उसके बाद मेम साहब आई।
और मुसीबत खड़ी हुई। उनका डर, बार-बार...
कहाँ गये थे? अरे, कहीं थे, तुमसे क्या मतलब?
मतलब कैसे नहीं है?
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
यदि आपके पास श्रद्धा रूपी पात्र है तो शीघ्र लेकर आइये और पात्रानुसार कृपालु महाप्रभु रूपी जलनिधि से भक्ति-जल भर-भरकर ले जाइए। स्वयं तृप्त होइये और अन्य की पिपासा को भी शांत कीजिये ।
यदि श्रद्धा रूपी पात्र भी नहीं है तो अपने परम जिज्ञासा रूपी पात्र से ही उस कृपालु-पयोधि का रसपान कर आनंदित हो जाइये ।
यदि जिज्ञासा भी नहीं है तो भी निराश न हों । केवल कृपालु-महोदधि के तट पर आकार बैठ जाइये, वह स्वयं अपनी उत्तुंग तरंगों से आपको सराबोर कर देगा । उससे आपमें जिज्ञासा का सृजन भी होगा, श्रद्धा भी उत्पन्न होगी और अन्तःकरण की शुद्धि भी होगी । तब उस शुद्ध अन्तःकरण रूपी पात्र में वह प्रेमदान भी कर देगा ।
और यदि उस कृपासागर के तट तक पहुँचने की भी आपकी परिस्थिति नहीं है तो आप उन कृपासिंधु को ही अपने ह्रदय प्रांगण में बिठा लीजिये । केवल उन्हीं का चिंतन, मनन और निदिध्यासन कीजिये । बस! आप जहां जाना चाहते हैं, पहुँच जाएँगे, जो पाना चाहते हैं पा जाएँगे ।
यदि श्रद्धा रूपी पात्र भी नहीं है तो अपने परम जिज्ञासा रूपी पात्र से ही उस कृपालु-पयोधि का रसपान कर आनंदित हो जाइये ।
यदि जिज्ञासा भी नहीं है तो भी निराश न हों । केवल कृपालु-महोदधि के तट पर आकार बैठ जाइये, वह स्वयं अपनी उत्तुंग तरंगों से आपको सराबोर कर देगा । उससे आपमें जिज्ञासा का सृजन भी होगा, श्रद्धा भी उत्पन्न होगी और अन्तःकरण की शुद्धि भी होगी । तब उस शुद्ध अन्तःकरण रूपी पात्र में वह प्रेमदान भी कर देगा ।
और यदि उस कृपासागर के तट तक पहुँचने की भी आपकी परिस्थिति नहीं है तो आप उन कृपासिंधु को ही अपने ह्रदय प्रांगण में बिठा लीजिये । केवल उन्हीं का चिंतन, मनन और निदिध्यासन कीजिये । बस! आप जहां जाना चाहते हैं, पहुँच जाएँगे, जो पाना चाहते हैं पा जाएँगे ।
।। कृपानिधान श्रीमद सद्गुरु सरकार की जय ।।
भगवान का बल निरन्तर हमारे पास रहने पर भी सक्रिय नहीं होता, इसका कारण है कि हम उसे स्वीकार नहीं करते। जब भी हम भगवान् के बल का अनुभव करने लगेंगे, तभी वह बल सक्रिय हो जायेगा और हम निहाल हो जाएंगे।
हमारी भोगों में सुख की आस्था इतनी दृढ़मूल हो रही है कि वैराग्य के शब्दों से वह दूर नहीं होती। किसी महान विपत्ति का प्रहार तथा भगवान् अथवा उनके किसी प्रेमीजन महापुरुष की कृपा ही इस आस्था को दूर कर सकते हैं।
शरणागत वही हो पाता है, जो दीन है। जिसे अपनी बुद्धि, सामर्थ्य, योग्यता का अभिमान है, वह किसी के शरण क्यों होना चाहेगा। जब अपना सारा बल, बलों की आशा - भरोसा टूट जाते हैं, तब वह भगवान् की और ताकता है और उनका आश्रय चाहता है।
हमारी भोगों में सुख की आस्था इतनी दृढ़मूल हो रही है कि वैराग्य के शब्दों से वह दूर नहीं होती। किसी महान विपत्ति का प्रहार तथा भगवान् अथवा उनके किसी प्रेमीजन महापुरुष की कृपा ही इस आस्था को दूर कर सकते हैं।
शरणागत वही हो पाता है, जो दीन है। जिसे अपनी बुद्धि, सामर्थ्य, योग्यता का अभिमान है, वह किसी के शरण क्यों होना चाहेगा। जब अपना सारा बल, बलों की आशा - भरोसा टूट जाते हैं, तब वह भगवान् की और ताकता है और उनका आश्रय चाहता है।
------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
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