#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज_की_प्रचारिका #सुश्री_श्रीधरी_दीदी_द्वारा_कृपासिंधु_भगवान_विषय_पर_विशेष_लेख!
★★★★कृपासिंधु भगवान★★★★
वेदों में भगवान को अनंत भी कहा गया है यथा -
अनंतश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता
अनंतश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता
क्योंकि उनकी हर चीज़ अनंत है। नाम अनंत, रूप अनंत, धाम अनंत, जन अनंत, शक्तियाँ अनंत। उनकी कोई भी चीज़ सीमित है ही नहीं। इसी प्रकार उनके गुण भी अनंत हैं। पृथ्वी के धूलिकणों को भले ही कोई गिन ले, सूर्य की किरणों को गिन ले लेकिन भगवान के अनंत दिव्य गुणों की गणना कथमपि नहीं हो सकती।
भूमि के परमाणु गोविंद राधे,
गिन भी लो हरि गुन अमित बता दे।
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
गिन भी लो हरि गुन अमित बता दे।
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति
अर्थात् यदि नीले पर्वत को समुद्र में मिलाकर स्याही तैयार की जाए, देवताओं के उद्यान के वृक्ष की शाखाओं को लेखनी बनाया जाए और पृथ्वी को कागज बनाकर भगवती शारदा (सरस्वती देवी) अनंतकाल तक लिखती रहें तब भी भगवान के गुणों का पार नहीं पाया जा सकता, वर्णन नहीं हो सकता। क्योंकि वर्णन तो सीमित का हो सकता है, अनंत का तो कहीं अंत ही नहीं इसलिए कथन अनंतकाल तक होता रहेगा। इसलिए भगवान की महिमा अपरंपार है। वे अचिन्त्य अनंतकल्याणगुणगणनिलय हैं।
अगनित गुन गन गोविंद राधे
सुनि शुक ब्रह्म समाधि भुला दे।
(राधा गोविंद गीत)
सुनि शुक ब्रह्म समाधि भुला दे।
(राधा गोविंद गीत)
अर्थात् भगवान के ऐसे अनंत दिव्य गुणों के विषय में सुनकर शुकदेव सरीखे आत्माराम पूर्णकाम परम निष्काम निर्ग्रन्थ अमलात्मा परमहंस भी अपने निर्गुण-निर्विशेष-निराकार ब्रह्म की समाधि को भूल जाते हैं।
भगवान के अनंत गुण हैं जैसे वे अनंत सौंदर्य-माधुर्य-सुधासिंधु हैं, अनंत बलशाली हैं, नित्य किशोर हैं, भक्तवत्सल, भक्तवश्य हैं इत्यादि। लेकिन उनका सबसे बड़ा गुण है कृपा का जिससे जीवों का कल्याण होता है। वे अकारण कृपा के अनंत सिंधु हैं, कृपा सागर हैं, दयालु हैं। उनके हृदय में करुणा का पारावार सदा हिलोरें मारता रहता हैं। वे तो जीवों पर कृपा करने के लिए सदा लालायित रहते हैं, कृपा करने के बहाने ढूँढते रहते हैं। उनकी इसी अकारण कृपा का ज्वलंत उदाहरण है - पूतना उद्धार।
अहोवकीयं स्तनकालकूटं जिघांसया पाययदप्य साध्वी
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।
(भागवत)
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।
(भागवत)
शुकदेव परमहंस भगवान के इसी अकारण करुणा के गुण को सुनकर श्री कृष्ण के दीवाने हो गए कि जिन्होंने अपने वक्षस्थल में विष लगाकर मार डालने की मंशा से आई हुई राक्षसी पूतना को भी अपनी माता का स्थान देकर सद्गति प्रदान की, अपने लोक भेज दिया ऐसे दयालु श्री कृष्ण को छोड़कर भला हम किसकी शरण में जायें।
नहिं मान्यो अपराध पूतनहिं,
गरल पिवावनहारी के,
दै 'कृपालु' निज लोक मातु सम,
को पटतर बनवारी के।
गरल पिवावनहारी के,
दै 'कृपालु' निज लोक मातु सम,
को पटतर बनवारी के।
हमारे परमपूज्य गुरुवर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं श्री कृष्ण इतने दयालु हैं कि उन्होंने विषपान कराने वाली पूतना के अपराध को भी अपराध न मानकर उसपर कृपावृष्टि करते हुए उसे अपना लोक दे दिया, उनसे बढ़कर कृपालु विश्व में और कौन हो सकता है।
अनंत कृपासिंधु भगवान के ऐसे दिव्य गुणों के विषय में सुनकर पामर से पामर जीवों के हृदय में भी भगवत्क्षेत्र में चलने का उत्साह होता है, भगवान की कृपा का भरोसा होता है कि जब उन्होंने इस प्रकार अनंत जीवों को अपनाया है तो वे हमें भी अवश्य अपनायेंगे। एक दिन हम भी उनकी कृपा के अधिकारी अवश्य बन सकेंगे।
अस्तु! बारम्बार भगवान के दिव्य गुणानुवाद करते हुए हमें उनके पतितपावन इत्यादि गुणों पर अपने विश्वास को दृढ़ करना चाहिए और अश्रु बहाकर अकारण करुणावरुणालय श्री कृष्णचन्द्र की कृपा की बाट जोहते हुए उनका निरंतर स्मरण करना चाहिए।
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