समस्त भगवत्प्रेमीजनों को जय श्री राधे !
भक्तिमार्गीय साधक को भगवत्पथ पर तीव्र गति से आगे बढ़ने के लिए सबसे अधिक ध्यान दीनता पर देना चाहिए । जितना अधिक दैन्य भाव हमारे हृदय में उत्पन्न होगा , उतना हृदय निर्मल होगा, आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित होगी और भगवत्प्रेम निरंतर बढ़ता जायेगा । दीनता को ही भक्ति की आधारशिला कहा गया है -
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना ।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:।।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:।।
गौरांग महाप्रभु ने कहा साधक को तृण से भी अधिक दीन और वृक्ष से भी अधिक सहनशील होना चाहिये , सदा दूसरों का सम्मान करे और स्वयं के लिए मान कभी न चाहे , स्वयं को सबसे अधिक निंदनीय माने।
इसी सिद्धांत को राधा गोविंद गीत में स्पष्ट करते हुए श्री महाराज जी कहते हैं -
साधक सिद्ध दोनों गोविंद राधे।
अपने को महापापी बता दे ।।
अपने को महापापी बता दे ।।
जो है महापापी गोविंद राधे ।
आपु को आपु निष्पाप बता दे ।।
आपु को आपु निष्पाप बता दे ।।
अर्थात् जो सच्चे साधक और सिद्ध होते हैं वे तो सदा स्वयं को महापतित ही बताते हैं , मानते हैं लेकिन जो घोर पापात्मा हैं वही स्वयं को निष्पाप मानकर दूसरों में दोष देखा करते हैं । वे स्वयं को ही सबसे बड़ा साधक समझते हैं और यही अहंकार उन्हें साधना में आगे बढ़ने नहीं देता ।
इसलिए जिसे भगवत्पथ पर तीव्र गति से आगे बढ़ना हो उसे सबसे पहले परम दैन्य भाव ही हृदय में उत्पन्न करना होगा । स्वयं को सबसे बड़ा पतित मानना होगा।
हे दीनबंधु ! तुम्हें तो केवल दीनता प्रिय है और मुझ अधम के हृदय में तो दीनता का लवलेश भी नहीं है । हे नाथ ! कृपा करके वह दैन्य भाव भी तुम ही प्रदान कर दो ।इसी कृपायाचना के साथ-
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