#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज_की_प्रचारिका #सुश्री_श्रीधरी_दीदी_द्वारा_चिंतन_की_शक्ति_विषय_पर_विशेष_लेख!
◆◆◆◆#चिंतन_की_शक्ति◆◆◆◆
मनुष्य के पास एक ऐसी शक्ति है जिसके आधार पर वह जैसा चाहे बन सकता है और जो प्राप्त करना चाहे प्राप्त कर सकता है। वह शक्ति है, चिंतन की शक्ति, जो संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। इस शक्ति का अवलम्ब लेकर चाहे तो मनुष्य सही चिंतन करके महापुरुष बन जाए अथवा गलत चिंतन करके राक्षस बन सकता है।
ये चिंतन करना मन का कार्य है। हमारा मन जैसा चिंतन करता है वैसी ही हमारी प्रतिक्रिया होती है, उसी के अनुसार हमारा कर्म होता है। चिंतन का ही ये परिणाम है कि मनुष्य आत्महत्या तक कर लेता है, दूसरे की हत्या भी कर देता है। जब किसी व्यक्ति का गलत चिंतन परिपक्व होकर अनियंत्रित हो जाता है तभी इस प्रकार के कार्य होते हैं। चिंतन का अर्थ है किसी भी विचार को बार-बार मन में लाना। अगर हमारे विचार गलत हैं और उनका निरन्तर चिंतन हम करते हैं तभी ये हत्या, आत्महत्या जैसे गलत कार्य भी होते हैं।
अगर ये चिंतन सही दिशा में हो, ईश्वरीय क्षेत्र में हो तो यही परम कल्याणकारी सत्चिंतन कहलाता है, जिससे मनुष्य भगवान को भी प्राप्त कर लेता है। तुलसीदास जी जैसे संतों ने इसी शक्ति के आधार पर भगवान को पाया है। जब तुलसीदास अत्यंत व्याकुल होकर पत्नी से मिलने के लिए छिपकर उसके मायके में पहुँचे तो उनकी पत्नी रत्नावती ने खिन्न होकर केवल एक स्वरचित दोहे के माध्यम से उनके प्रेम का तिरस्कार किया -
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीत,
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव भीत?
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव भीत?
यह दोहा सुनते ही तुलसीदास का चिंतन परिवर्तित हो गया। उन्होंने विचार किया कि जिस पत्नी के लिए मैं इस प्रकार विरहातुर होकर यहाँ तक आया हूँ, वही इस प्रकार मेरा अपमान कर रही है। संत महात्मा ठीक कहते हैं, इस जगत में कोई अपना नहीं है, सब स्वार्थ के मीत हैं। अब तो मुझे श्री राम को ही पाना है और बस इसी विचार का बार बार चिंतन किया और इस सत्विचार के सत्चिंतन से ही उन्होंने राम को पा लिया। महापुरुष बन गए। इसीलिए वेदव्यास ने भी भागवत में कहा -
विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते
मामनुस्मरतश्चित्तम् मय्येवप्रविलीयते
(भागवत : 11-14-27)
मामनुस्मरतश्चित्तम् मय्येवप्रविलीयते
(भागवत : 11-14-27)
श्री कृष्ण कहते हैं, विषयों का चिंतन करने से मन विषयों में फँस जाता है, विषयी हो जाता है और मेरा स्मरण करने से मन मुझ में विलीन हो जाता है। मुझसे प्रेम करने लगता है।
अर्थात् भगवत्प्राप्ति की कुँजी भी यही चिंतन है और संसार की आसक्ति का कारण भी विषयों का चिंतन है।
अतएव इस शक्ति का महत्त्व समझकर हमें गुरु की बुद्धि में अपनी बुद्धि को जोड़कर उस सद्बुद्धि से मन को संचालित करते हुए सत्चिंतन का आश्रय लेकर परमार्थ पथ पर आगे बढ़ना होगा। तब धीरे धीरे इसी सत्चिंतन की परिपक्वता से एक दिन अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
अर्थात् भगवत्प्राप्ति की कुँजी भी यही चिंतन है और संसार की आसक्ति का कारण भी विषयों का चिंतन है।
अतएव इस शक्ति का महत्त्व समझकर हमें गुरु की बुद्धि में अपनी बुद्धि को जोड़कर उस सद्बुद्धि से मन को संचालित करते हुए सत्चिंतन का आश्रय लेकर परमार्थ पथ पर आगे बढ़ना होगा। तब धीरे धीरे इसी सत्चिंतन की परिपक्वता से एक दिन अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
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