तृष्णा की नदी गहरी है, शरीर रूपी नाव जीर्ण है, अतएव बिना कुशल नाविक सद्गुरु के तुम भवसागर से कैसे पार उतरोगे। सद्गुरु की शरण ही संसार -सागर से बचाने वाली है।
हरि-गुरु को सदा अपने साथ महसूस करो। यानि कभी अपने आप को अकेला मत समझो। जब कभी मक्कारी का विचार पैदा हो, तुरंत यह सोचो कि वे देख रहे हैं।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
सद्गुरु के पास किसी को इंकार नहीं है। जो डूबने को राजी है सद्गुरु उसे लेने को तैयार है। वह शर्ते नहीं रखता। वह पात्रताओं के जाल खडे नहीं करता। अपात्र को पात्र बना ले, वही तो सद्गुरु है। अयोग्य को योग्य बना ले वही तो सद्गुरु है। संसारी को सन्यासी बना ले, वही तो सद्गुरु है।
सदा गुरु की आज्ञा ही मानो सब आज्ञा काट के। ईश्वरीय जगत में हर काम मनसा(मन का) से ही नोट होता है, work देखा ही नहीं जाता। हमारा idea जहाँ आया वहाँ गड़बड़ हुआ।
संसारी वस्तु का त्याग वास्तविक त्याग नहीं है, वरन मन की आसक्ति का त्याग ही त्याग है।
-------श्री महाराजजी।
जो भगवान के शरणागत होने का अभ्यास करता है अर्थात मन को जगत से हटाकर श्रीकृष्ण में ही सर्वदा लगाने का अभ्यास करता है, वह सतसंपर्दायवादी है। और ठीक इसके विपरीत जो मायिक जगत में सुख मानते हुए तदर्थ प्रयत्नशील है, वह माया के संपर्दाय वाला है।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
सारा खेल मन के चिंतन और बुद्धि के decision पर है। वह जो चाहे बन सकता है- देव, दानव, या महापुरुष।
-------श्री महाराजजी।
हरि-गुरु को सदा अपने साथ महसूस करो। यानि कभी अपने आप को अकेला मत समझो। जब कभी मक्कारी का विचार पैदा हो, तुरंत यह सोचो कि वे देख रहे हैं।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
सद्गुरु के पास किसी को इंकार नहीं है। जो डूबने को राजी है सद्गुरु उसे लेने को तैयार है। वह शर्ते नहीं रखता। वह पात्रताओं के जाल खडे नहीं करता। अपात्र को पात्र बना ले, वही तो सद्गुरु है। अयोग्य को योग्य बना ले वही तो सद्गुरु है। संसारी को सन्यासी बना ले, वही तो सद्गुरु है।
सदा गुरु की आज्ञा ही मानो सब आज्ञा काट के। ईश्वरीय जगत में हर काम मनसा(मन का) से ही नोट होता है, work देखा ही नहीं जाता। हमारा idea जहाँ आया वहाँ गड़बड़ हुआ।
संसारी वस्तु का त्याग वास्तविक त्याग नहीं है, वरन मन की आसक्ति का त्याग ही त्याग है।
-------श्री महाराजजी।
जो भगवान के शरणागत होने का अभ्यास करता है अर्थात मन को जगत से हटाकर श्रीकृष्ण में ही सर्वदा लगाने का अभ्यास करता है, वह सतसंपर्दायवादी है। और ठीक इसके विपरीत जो मायिक जगत में सुख मानते हुए तदर्थ प्रयत्नशील है, वह माया के संपर्दाय वाला है।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
सारा खेल मन के चिंतन और बुद्धि के decision पर है। वह जो चाहे बन सकता है- देव, दानव, या महापुरुष।
-------श्री महाराजजी।
No comments:
Post a Comment