Monday, October 10, 2011




धरो मन ! गौर-चरन को ध्यान |
जिन चरनन को राखत निज उर, सुंदर श्याम सुजान |
भटकट कोटि कल्प तोहिँ बीते, खायो सिर पदत्रान |
चार प्रकार लक्ष चौरासी, द्वार फिरयो जनु स्वान |
चरण-शरण कबहूँ नहिं आयो, अबहूँ करत न कान |
... येहि दरबार दीन को आदर, पतितन को सनमान |
पुनि ‘कृपालु’ तुम कत चूकत मन, पंडित बनत महान ||

भावार्थ- अरे मन ! कीर्ति-कुँवरी राधिका जी के चरणों का निरन्तर ध्यान किया कर, जिन चरणों का ध्यान सच्चिदानंद श्रीकृष्ण भी करते हैं | अरे मन ! तुझे भटकते हुए अनन्त जन्म बीत चुके, एवं तूने उन विषयों के अनन्त बार जूते खाये | स्वेदज, अंडज, उद् भिज, जरायुज इन चार प्रकार की उत्पति के द्वारा कुते की तरह तूने चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाया है, किन्तु किशोरी जी के चरण-कमलों की शरण कभी नहीं ली | आज भी मेरी बात नहीं मान रहा है | अरे मन ! किशोरी जी के दरबार में पतितों एवं दीनों को ही सम्मान मिलता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरे मन ! तुम बहुत बड़े पंडित बनते हो फिर ऐसा अवसर क्यों खो रहे हो, अर्थात् किशोरी जी के चरणों की शरण क्यों नहीं लेते ?

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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