Friday, October 14, 2011


चलु प्रेम नगर की गैल रे |
इंद्रिन विषयन हित क्यों भटकत, ज्यों कोल्हू को बैल रे |
कोटि उपाय करे कोउ तबहूँ, पाव न सिकतहिँ तैल रे |
युग युग मथै वारि कहँ तबहूँ, पाव न कोउ घृत मैल रे |
भुक्ति मुक्ति इन दोउन जानिय, अति ही प्रबल चुड़ैल रे |
... अब ‘कृपालु’ मन भज उनहिंन कहँ, जो कुब्जा के छैल रे ||

भावार्थ- अरे मन ! प्रेम नगर के मार्ग में चल | इंद्रियों के विषयों के लिए तू कोल्हू के बैल के समान क्यों चक्कर खा रहा है | करोड़ों उपाय करने पर भी कोई बालू से तेल नहीं निकाल सकता एवं करोड़ों युग तक पानी को मथने पर भी कोई घी का मैल भी नहीं प्राप्त कर सकता | अरे मन ! यह भुक्ति एवं मुक्ति अत्यन्त ही प्रबल चुड़ैलें हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि इसलिए हे मन ! कुब्जा के छैल श्यामसुन्दर का निरन्तर भजन कर |


(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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