Tuesday, October 18, 2011



सखी ! इन नैनन कहा करूँ? |
इन नैनन की लरिकैयन के, कारण आह भरूँ |
इन निगुरिन उर आग लगाई, हौं दिन रैन जरूँ |
इन ने तो निज नात जोरि लइ, हौं भल भाल परूँ |
कछु तो मोहिं समुझाउ श्याम बिनु, केहि विधि धीर धरूँ |
... अब ‘कृपालु’ अस दशा भई मम, ना जीऊँ न मरूँ ||

भावार्थ- एक विरहिणी कहती है कि अरी सखी ! मैं इन आँखों का क्या करूँ | इनके लड़कपन के कारण रात-दिन मैं आहें भरा करती हूँ | इन निगुरियों ने हमारे हृदय में आग लगा दी | मैं बिना अपराध के ही जल रही हूँ | इन्होंने तो अपना नाता श्यामसुन्दर से स्थापित कर लिया, मैं भले ही भाड़ में पड़ूँ | अरी सखी ! मुझे कुछ तो समझा, मैं किस प्रकार धीरज धारण करूँ | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में मेरी दशा तो ऐसी हो गयी है कि न जीवित रहते बनता है और न मरते ही बनता है |

(प्रेम रस मदिरा विरह - माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

No comments:

Post a Comment