सखी ! इन कानन का न करी |
प्रथम मुरलिधर मुरलि तान ते, कानन कान भरी |
पुनि कानन ने कान भरे इन, नैनन घरी घरी |
तब इन नैनन हरि नैनन ते, इक दिन जाय लरी |
गयो हार अब इन नैनन, उन, नैनन बान परी |
लगतहिं बान ‘कृपालु’ अवनि गिरि, सुधि भूली सिगरी ||
प्रथम मुरलिधर मुरलि तान ते, कानन कान भरी |
पुनि कानन ने कान भरे इन, नैनन घरी घरी |
तब इन नैनन हरि नैनन ते, इक दिन जाय लरी |
गयो हार अब इन नैनन, उन, नैनन बान परी |
लगतहिं बान ‘कृपालु’ अवनि गिरि, सुधि भूली सिगरी ||
भावार्थ – एक विरहिणी कहती है कि अरी सखी ! मेरे इन कानों ने क्या
नहीं किया | सर्वप्रथम मुरलीधर ने अपनी मधुर मुरली की तान से इन कानों के
कान भरे | पुन: इन कानों ने आँखों को बहकाया | एक दिन यह आँखें जाकर
श्यामसुन्दर से लड़ गयीं | परिणाम यह हुआ कि श्यामसुन्दर के नैनों के बाणों
से मैं घायल हो गयी | अब इन्हें संसार की बिल्कुल भी सुधि नहीं है | ‘श्री
कृपालु जी’ कहते हैं कि उन्हीं के कारण अब हमारे प्राणों पर भी बीती है |
हे श्यामसुन्दर ! अब मुझे किसी प्रकार बचा लो |
( प्रेम रस मदिरा विरह – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
( प्रेम रस मदिरा विरह – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
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