Friday, July 4, 2014

रैन – दिन विरहिनि तलफत जात |
दई !! दई !! दई !! हाय ! हाय ! कहि, पुनि पुनि अति अकुलात |
कुंज – पुंज टेरत हेरत हरि, सुंदर श्यामल गात |
तारे गिन गिन छिन छिन बितवति, कालनिशा – सम रात |
ग्रह गृहीत जिमि नाचति, गावति, हँसति रुदति बतरात |
बैरी विरह ‘कृपालु’ लगायो, प्राण लेन की घात ||

भावार्थ – विरहिणी कहती है कि दिन एवं रात तड़पते हुए ही व्यतीत होती है | मैं बार – बार विरह में व्याकुल होकर ‘हाय दई ! हाय दई !! कहकर आहें भरा करती हूँ | प्रत्येक कुंज में अपने प्यारे श्यामसुन्दर को पुकारती हुई ढूँढा करती हूँ | एक – एक क्षण तारे गिन – गिनकर कालनिशा के समान रात्रि व्यतीत करती हूँ | भूत लगे हुए के समान नाचती हूँ, कभी गाती हूँ, कभी रोती हूँ, कभी हँसती हूँ एवं कभी अपने आप ही प्रियतम से उनके वियोग में बातें करती हूँ | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि इस विरह रूपी शत्रु ने अब मेरे प्राण लेने की सोच ली है |

( प्रेम रस मदिरा विरह – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति.

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