सखी तू, उनहिन ओर ढुरे |
मानिनि कहति, सुनो सखि ! ललिता, वे सब भाँति बुरे |
हम उन ते नहिं बात करन चह, वे ऐसे निगुरे |
ऐसे घाव किये उनने जो, कैसेहुँ नाहिं पुरे |
तोरि दियो तृण सम सब नातो, अब नहिं नात जुरे |
सुनत ‘कृपालु’ ओट ते हरि उर, लागत बैन छुरे ||
मानिनि कहति, सुनो सखि ! ललिता, वे सब भाँति बुरे |
हम उन ते नहिं बात करन चह, वे ऐसे निगुरे |
ऐसे घाव किये उनने जो, कैसेहुँ नाहिं पुरे |
तोरि दियो तृण सम सब नातो, अब नहिं नात जुरे |
सुनत ‘कृपालु’ ओट ते हरि उर, लागत बैन छुरे ||
भावार्थ – मानिनी वृषभानुनन्दिनी ललिता सखी से कहती हैं कि अरी सखी !
तू तो उन्हीं की ओर होकर बात करती है | अरी ललिता ! वे सब प्रकार से बुरे
हैं | अब मैं उन निगोड़े श्यामसुन्दर से बात नहीं करना चाहती | उन्होंने
हमारे हृदय में ऐसा घाव किया है कि जो किसी भी प्रकार से अच्छा नहीं हो
सकता | अब हमारा उनका तो सम्बन्ध नहीं रहा | हमने अपना सम्बन्ध तृण के समान
तोड़ दिया है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि श्यामसुन्दर ओट से यह सब सुन
रहे हैं | किशोरी जी के कटुवचन उनके हृदय में छुरे के समान लग रहे हैं |
( प्रेम रस मदिरा मान – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
( प्रेम रस मदिरा मान – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
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