खंभ - मणि विहरत सुंदर श्याम |
लखि प्रतिबिंब खंभ – मणि छिन – छिन, किलकत अति अभिराम |
कबहुँ दिखावत दशन मगन मन, रसनहिं कबहुँ ललाम |
कबहुँ दिखावत निज कर अँगुरिन, ‘गूँ गूँ’ करि सुखधाम |
कबहुँक खीझि मार कर ते हरि, कबहुँक मारत पाम |
इमि ‘कृपालु’ रीझत खीझत हरि, रिझवत यशुमति भाम ||
लखि प्रतिबिंब खंभ – मणि छिन – छिन, किलकत अति अभिराम |
कबहुँ दिखावत दशन मगन मन, रसनहिं कबहुँ ललाम |
कबहुँ दिखावत निज कर अँगुरिन, ‘गूँ गूँ’ करि सुखधाम |
कबहुँक खीझि मार कर ते हरि, कबहुँक मारत पाम |
इमि ‘कृपालु’ रीझत खीझत हरि, रिझवत यशुमति भाम ||
भावार्थ – श्यामसुन्दर मणिमण्डित खंभ के पास विहार कर रहे हैं | वे
उन मणिमण्डित खंभों में अपनी परछाई देखकर बार – बार मधुर किलकारी मारते हैं
| कभी तो अपनी ही परछाई को, दूसरा बालक समझकर, आनन्द में विभोर होकर, अपने
दाँत दिखाते हुए चिढ़ाते हैं | कभी इसी प्रकार जिह्वा दिखाते हैं | कभी
“गूँ गूँ” ऐसी मधुर ध्वनि करते हुए हाथों की अँगुलियाँ दिखाते हैं एवं कभी
अपने ही समान सभी संकेत करते हुए देख कर, मणिखम्भ में हाथ से मारते हैं तथा
कभी पैर से भी मारते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ के मतानुसार इस प्रकार रीझते –
खीझते हुए, बड़भागिनी यशोदा मैया को रिझा रहे हैं |
( प्रेम रस मदिरा श्री कृष्ण – बाल लीला – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
( प्रेम रस मदिरा श्री कृष्ण – बाल लीला – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
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