कौन हरि! हमरो तुम्हरो नात।
तुम सोवत निज लोक चैन ते, हम रोवत दिन रात।
हम पल छिन तुम बिन नित तलफत, तुम नहिं पूछत बात।
नैन निगोरे बरजत मोरे, और और अकुलात।
रोम रोम नित याचत मोते, सुंदर श्यामल गात।
जानि ‘कृपालु’ कृपालु तोहिं हौं, प्रीति करी पछितात।|
तुम सोवत निज लोक चैन ते, हम रोवत दिन रात।
हम पल छिन तुम बिन नित तलफत, तुम नहिं पूछत बात।
नैन निगोरे बरजत मोरे, और और अकुलात।
रोम रोम नित याचत मोते, सुंदर श्यामल गात।
जानि ‘कृपालु’ कृपालु तोहिं हौं, प्रीति करी पछितात।|
भावार्थ:-हे श्यामसुन्दर! हमारा-तुम्हारा नाता ही क्या समझा जाय, जबकि तुम अपने गोलोक में चैन से सो रहे हो और हम तुम्हारे लिए निरन्तर रो रहे हैं। हम सदा एक-एक क्षण तुम्हारे मधुर-मिलन के लिए तड़पते रहते हैं फिर भी तुम बात नहीं पूछते। इन हठीले नेत्रों को मैं जितना अधिक समझाता हूँ उतने ही यह और व्याकुल होते हैं। कहाँ तक कहें, प्रत्येक रोम-रोम मुझ से सलोने श्यामसुन्दर को माँगता है। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैंने तुम से, कृपा करने वाला समझकर, प्रेम किया था, किन्तु अब तुम्हारी निष्ठुरता को देखकर मन ही मन पछता रहा हूँ।
(प्रेम रस मदिरा:-दैन्य–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।
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