#मुक्ति एवं #बंधन में मध्यस्थ कारण केवल #मन ही है । अतएव हमें मन को ही #ईश्वर के #शरणागत करना है । मन के शरणागत होने पर सबकी #शरणागति स्वयमेव हो जायेगी । हम लोग शारीरिक क्रियादिकों से तो ईश्वर की शरणागति सदा ही करते हैं किन्तु मन की #आसक्ति जगत में ही रखते हैं अतएव मन की आसक्ति के अनुसार जगत की ही प्राप्ति होती है । यह अटल सिद्धांत है कि मन की आसक्ति जहाँ होगी , बस उसी #तत्व की प्राप्ति होगी । यदि हम शारीरिक कर्म अन्य करें एवं मानसिक आसक्ति अन्यत्र हो तो बस मन की आसक्ति का ही फल मिलेगा । अर्थात यदि शरीरेंद्रियों से हम शुभ या अशुभ कर्म करें एवं मन से कुछ भी न करें , केवल ईश्वर- शरणागत ही रहें तो कर्म का फल न मिलेगा , केवल ईश्वरीय लाभ ही मिलेगा । अतएव मन की शरणागति ही वास्तविक शरणागति है । जैसे पैरों को बांधकर मार्चिंग नहीं हो सकती , मुख बंद करके स्पीच नही हो सकती , वैसे ही मन को अन्यत्र आसक्त करके #ईश्वरोपासना भी नही हो सकती । मन की आसक्ति ही #ईश्वरीय क्षेत्र में '#उपासना' कहलाती है एवं जगत क्षेत्र में '#आसक्ति' कहलाती है ।
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