हमारो, कान्ह प्रान को प्रान।
आजु सखी! हौं करन गई रहि, यमुना महँ असनान।
तहँ दुर्वासा मरम बतायो, दै वेदादि प्रमान।
मुनि इमि कह इंद्रिय मन बुधि कहँ, जिमि प्रिय प्रान बखान।
तिमि इन प्रानन प्रान जान उन, सुंदर श्याम सुजान।
कह ‘कृपालु’ तबही सखि! लागत, प्रानन प्यारो कान्ह||
आजु सखी! हौं करन गई रहि, यमुना महँ असनान।
तहँ दुर्वासा मरम बतायो, दै वेदादि प्रमान।
मुनि इमि कह इंद्रिय मन बुधि कहँ, जिमि प्रिय प्रान बखान।
तिमि इन प्रानन प्रान जान उन, सुंदर श्याम सुजान।
कह ‘कृपालु’ तबही सखि! लागत, प्रानन प्यारो कान्ह||
भावार्थ:– हमारे श्यामसुन्दर आत्मा की भी आत्मा हैं। अरी सखी! आज मैं यमुना–स्नान करने गयी थी, वहाँ दुर्वासा मुनि ने वेदादिकों के प्रमाण द्वारा यह रहस्य बताया। उन्होंने कहा जिस प्रकार इन्द्रिय, मन, बुद्धि को प्राण अर्थात् आत्मा, अपने से भी अधिक प्रिय है, उसी प्रकार आत्मा को भी, आत्मा की आत्मा–परमात्मा अर्थात श्यामसुंदर अधिक प्रिय हैं। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं–अरि सखी! इसी कारण से श्यामसुन्दर प्राणों से भी अधिक प्यारे लगते हैं। यह रहस्य आज समझी।
(प्रेम रस मदिरा:-श्रीकृष्ण–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।
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