हमारे गुरुदेव.........'हमारे कृपालु गुरुवर'....'हमारे रखवार'...'हमारी सरकार'...!!!
हमारे गुरुदेव का आध्यात्मिक परिचय तो केवल उनकी कृपा से ही थोड़ा बहुत जाना जा सकता है।उनके दिव्य स्वरूप,उनकी क्षमता एवं भगवद विषय में दक्षता के विविध पक्ष हैं जो केवल साधक की शरणागति एवं अंत:करण की शुद्धता की अवस्था पर ही उनकी कृपा से अनुभव में आ सकता है अन्यथा बुद्धि-कौशल से या तर्क-वितर्क कुतर्क से महापुरुष को जानने की चेष्टा करना ही पागलपन है। वह कभी पकड़ में नहीं आ सकता। जब कभी किसी जीव के मन में उनके प्रति सच्ची जिज्ञासा होगी या भगवान के प्रति तीव्र लालसा का उदय होगा वह 'कृपालु महाप्रभु' तक आ ही जाता है या यूँ कहें की वो स्वयं चल कर उस तक पहुँच ही जाते हैं। लेकिन सावधान..... अगर मायावश उनसे किसी ने संसार मांग लिया जैसे मान-सम्मान,आर्थिक लाभ,रिद्धी-सिद्धि,स्वास्थ्य लाभ आदि तो फिर गुरुदेव अपने आपको छिपा लेते हैं तथा उस जीव के साथ ऐसा व्यवहार होगा कि वह वापस होकर ही रहेगा।
यहाँ तो जिसे भक्ति चाहिये,भगवत प्रेम चाहिये केवल वही टिक सकता है ऐसा अगर न होता तो अबतक इनके सत्संग में करोड़ो-अरबों की भीड़ होती। यहाँ कृपालु दरबार में भीड़ का काम नहीं यहाँ तो 'श्रीराधेश्याम ' की निष्काम भक्ति व नित उनकी सेवा मांगने वाले ही टिक सकते हैं।
हमारे गुरुदेव का आध्यात्मिक परिचय तो केवल उनकी कृपा से ही थोड़ा बहुत जाना जा सकता है।उनके दिव्य स्वरूप,उनकी क्षमता एवं भगवद विषय में दक्षता के विविध पक्ष हैं जो केवल साधक की शरणागति एवं अंत:करण की शुद्धता की अवस्था पर ही उनकी कृपा से अनुभव में आ सकता है अन्यथा बुद्धि-कौशल से या तर्क-वितर्क कुतर्क से महापुरुष को जानने की चेष्टा करना ही पागलपन है। वह कभी पकड़ में नहीं आ सकता। जब कभी किसी जीव के मन में उनके प्रति सच्ची जिज्ञासा होगी या भगवान के प्रति तीव्र लालसा का उदय होगा वह 'कृपालु महाप्रभु' तक आ ही जाता है या यूँ कहें की वो स्वयं चल कर उस तक पहुँच ही जाते हैं। लेकिन सावधान..... अगर मायावश उनसे किसी ने संसार मांग लिया जैसे मान-सम्मान,आर्थिक लाभ,रिद्धी-सिद्धि,स्वास्थ्य लाभ आदि तो फिर गुरुदेव अपने आपको छिपा लेते हैं तथा उस जीव के साथ ऐसा व्यवहार होगा कि वह वापस होकर ही रहेगा।
यहाँ तो जिसे भक्ति चाहिये,भगवत प्रेम चाहिये केवल वही टिक सकता है ऐसा अगर न होता तो अबतक इनके सत्संग में करोड़ो-अरबों की भीड़ होती। यहाँ कृपालु दरबार में भीड़ का काम नहीं यहाँ तो 'श्रीराधेश्याम ' की निष्काम भक्ति व नित उनकी सेवा मांगने वाले ही टिक सकते हैं।
गुरु के
वचन,प्रवचन व दिशा निर्देश केवल मायिक शब्द या अर्थ नहीं होते। वह तो दिव्य
चिन्मय एवं भगवद भाव से परिपूर्ण होते हैं। गुरु की कृपा से तो अंगूठा छाप
को भी तत्त्वज्ञान हो जाता है वरना तो वही वचन ब्रहस्पति,सरस्वती की भी
बुद्धि कुंठित कर दे। जो जिस कोटि का साधक होता है वह अपनी स्थिति के
अनुसार गुरु के आदेश अथवा प्रवचन को आत्मसात कर पाता है। वैसे तो सभी का
अनुभव येही है की ऐसा दिव्य विलक्षण प्रवचन आजतक तो पहले कभी कहीं नहीं
सुना।ऐसा लगता है जैसे सभी आप्त ग्रंथ,ऋचाएँ सामने खड़ी हों कि उनके कुछ
छंध,कुछ दोहे,कुछ श्लोक,कुछ आयते श्री महाराजजी अपने श्रीमुख से बोल दें और
वे धन्य हो जायें। भगवत तत्त्व के प्रतिपादन में उद्धरणों (quotations) की
भरमार रहती है,वेद,पुराण,गीता,भागवत,बाइबल,रामायण,क़ुरान आदि से उदाहरण
प्रस्तुत करके गुरुदेव सबका समन्वय करते हैं। ऐसे समन्वयवादी गुरु को
जगद्गुरुत्तम की उपाधि प्रदान कर आध्यात्मिक जगत गौरवान्वित हुआ है।
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