जिस
प्रकार जल जाने के पश्चात् भी रस्सी अपने रस्सी रूप में ही संसार में
दिखाई देती है। इसी प्रकार से संसार को हरि हरिजन के शुभ व् अशुभ कर्म ही
दिखाई देते हैं उनका निर्विकार स्वरूप नहीं दीखता। उसे तो कोई महापुरुष ही
देख सकता है। साधक को सदैव यह विचार करना चाहिये कि मायाबद्ध अवस्था में
निरंतर अपनी मन - बुद्धि का योग हरि गुरु की बुद्धि से करने में ही कल्याण
है।
............जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
............जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
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