ऊधो !, जाय कह्यो तुम वाय |
इक इक द्वै ह्वै जात जान सब, पै द्वै ह्वै इक आय |
जग प्रसिद्ध यह चोर चोर दोउ, मौसियाउतहिं भाय |
जस वे माधव तस तुम ऊधव, अंतर कछु न जनाय |
उनने उर विरहाग लगाई, तुम लै घृत छिरकाय |
मोहिं ‘कृपालु’ नहिं कहन सुनन वे, करैं जोइ मनभाय ||
इक इक द्वै ह्वै जात जान सब, पै द्वै ह्वै इक आय |
जग प्रसिद्ध यह चोर चोर दोउ, मौसियाउतहिं भाय |
जस वे माधव तस तुम ऊधव, अंतर कछु न जनाय |
उनने उर विरहाग लगाई, तुम लै घृत छिरकाय |
मोहिं ‘कृपालु’ नहिं कहन सुनन वे, करैं जोइ मनभाय ||
भावार्थ – ब्रजांगनाएँ उद्धव के द्वारा श्यामसुन्दर को संदेश भेजती
हुई कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम उनसे जाकर कह देना कि यह तो सभी जानते हैं
कि एक – एक मिलकर दो हो जाता है किन्तु यहाँ पर दो मिलकर एक होकर आये हैं
अर्थात् तुम दोनों एक ही समान हो संसार में यह कहावत प्रसिद्ध है कि चोर –
चोर मौसियावत भाई होते हैं | हे उद्धव ! जैसे माधव हैं वैसे तुम भी हो |
तुम दोनों में कोई अंतर नहीं उन्होंने हृदय में विरह की आग लगा दी और तुम
उसके ऊपर घी का छिड़काव करने आये हो | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में मुझे
कुछ कहना सुनना नहीं है | उन्हें जो अच्छा लगे वही करें |
( प्रेम रस मदिरा विरह - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति.
( प्रेम रस मदिरा विरह - माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति.
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