Thursday, November 24, 2011


किशोरी मोरी, सुनिय नेकु इक बात |
हौं मानत हौं परम पातकी, विश्व-विदित विख्यात |
पै यह कौन बात अचरज की, तव चरनन विलगात |
कोउ इक मोहिं बताउ तुमहिं तजि, बिनु पातक जग जात |
जेहि दरबार कृपा बिनु कारन, बटत रही दिन रात |
... तेहि दरबार भयो अब टोटो, यह अचरज दरसात |
मोहिं ‘कृपालु’ कछु आपुन सोच न, तोहिं सोचि पछितात ||

भावार्थ- हे वृन्दावन विहारिणी राधिके ! मैं आपसे एक छोटी-सी बात कहना चाहता हूँ, कृपया बुरा न मानते हुए सुन लीजिए | मैं स्वयं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि मैं समस्त संसार में प्रख्यात एवं विश्वविदित पापात्मा हूँ, पर साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि तुम्हारे चरण-कमलों से विमुख होने के कारण हूँ, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अनादि काल से लेकर आज तक के इतिहास में मुझे किसी एक जीव का भी नाम बता दीजिए जो तुमसे विमुख होकर भी संसार में निष्पाप हुआ हो | आश्चर्य तो यह है कि जिस दरबार में बिना कारण ही निरन्तर कृपा का वितरण हुआ करता था, आज उसी दरबार में मुझ पतित के लिए कृपणता की जा रही है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मुझे अपनी तो कोई भी चिन्ता नहीं, किन्तु तुम्हारे अपयश को सोचकर बार-बार शोक-सा हो रहा है; क्योंकि तुम्हारा यह अपयश मुझ अभागे पतित के द्वारा ही होगा |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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