Wednesday, November 2, 2011


तुमहिं मम गति गिरिधर गोपाल |
कोउ धन साधन बल जग महँ कर, यज्ञ अनेक विशाल |
कोउ कानन महँ करत घोर तप, तजि जल अशन रसाल |
कोउ अष्टांग योग-साधन कोउ, अनुष्ठान विकराल |
सुन्यों नाथ हौं परम आलसी, तुम पतितन-प्रतिपाल |
... तजि ‘कृपालु’ विश्वास आस सब, भजत लाड़लिहिं लाल ||

भावार्थ- हे श्यामसुन्दर ! तुम ही मेरे सर्वस्व हो | संसार में कोई धनादि के साधनों द्वारा अनेक महत्तम यज्ञ करता है | कोई खाना-पीना छोड़ कर घोर जंगल में तप करता है | कोई अष्टांग-योग-साधन करता है | कोई दुष्कर अनुष्ठान करता है | किन्तु , हे नाथ ! मैं तो महा आलसी हूँ, मैंने तो सुना है कि तुम पतितों को अपनाते हो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि हम तो और सब आशाओं एवं विश्वासों को छोड़कर एकमात्र श्यामा-श्याम की उपासना करते हैं |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

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