संसार के कार्य करते हुए भी बीच-बीच में बारंबार 'भगवान मेरे सामने हैं' इस प्रकार रूपध्यान द्वारा निश्चय करते रहना चाहिये। इससे दो लाभ हैं - एक तो रूपध्यान परिपक्व होगा, दूसरे हम, भगवान को अपने समक्ष, साक्षात रूप से महसूस करते हुए उच्छृंक्ल न हो सकेंगे, जिसके परिणाम स्वरूप अपराधों से बचे रहेंगे। जीव तो, किंचित भी स्वतंत्र हुआ कि बस, वह धारा-प्रवाह रूप से संसार की ही ओर भागने लगेगा।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
लोकरंजन का लक्ष्य भी घोर कुसंग है। प्राय: साधक थोड़ा बहुत समझ लेने पर अथवा थोड़ा बहुत अनुभव कर लेने पर, उसे दुनिया के सामने गाता फिरता है,एवं धीरे धीरे यह अभिमान का रूप धारण कर लेता है,जिसके परिणाम-स्वरूप साधक की वास्तविक निधि ,दीनता छिन जाती है एवं हँसी-हँसी में लोकरंजन की बुद्धि परिपक्व हो जाती है। अतएव साधक को लोकरंजन रूपी महाव्याधि से बचना चाहिये।
-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।
श्री कृपालु महाप्रभु जी समझाते हैं कि:-
क्षमा माँगने के बाद पुन: अपराध न हो। हमने हृदय से अपराध को अपराध नहीं माना तभी तो क्षमा माँग लेने पर पुन: वही अपराध करते हैं।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
लोकरंजन का लक्ष्य भी घोर कुसंग है। प्राय: साधक थोड़ा बहुत समझ लेने पर अथवा थोड़ा बहुत अनुभव कर लेने पर, उसे दुनिया के सामने गाता फिरता है,एवं धीरे धीरे यह अभिमान का रूप धारण कर लेता है,जिसके परिणाम-स्वरूप साधक की वास्तविक निधि ,दीनता छिन जाती है एवं हँसी-हँसी में लोकरंजन की बुद्धि परिपक्व हो जाती है। अतएव साधक को लोकरंजन रूपी महाव्याधि से बचना चाहिये।
-------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।
श्री कृपालु महाप्रभु जी समझाते हैं कि:-
क्षमा माँगने के बाद पुन: अपराध न हो। हमने हृदय से अपराध को अपराध नहीं माना तभी तो क्षमा माँग लेने पर पुन: वही अपराध करते हैं।
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