Tuesday, November 29, 2011




श्यामसुंदर तुमसे मिलने को व्याकुल हैं...किन्तु तुम यह नहीं जानते थे....

अब यदि जान भी गए हो तो...............................मानना नहीं चाहते......

तुमने संसार में अकारण करुणा का व्यवहार कहीं नहीं देखा है........शायद इसीलिए अप्रतीती होती है....
...
यदि तुम यह मान लो की.........वे आज और अभी ही तुमसे मिलने को व्याकुल हैं...तो बस तुम्हारे ह्रदय में भी उनके जैसी ही व्याकुलता उत्पन्न हो जाये और बस ...वे मिल जायेंगे...

वो तुम्हारे झूठ मूठे रूप ध्यान , नाम , गुण आदि को भी तन्मयता से सुनते और देखते हैं...की शायद अब की बार ठीक से करेगा.....

पर होता क्या है...? वो परखते ही रह जाते हैं...और तुम उनके अहैतुकी स्नेह को न समझने के कारण ठीक ठीक नहीं कर पाते.....

इसलिए तुम उपरोक्त बात को मान लो ...जिस समय तुम मेरी बात पर विश्वास कर लोगे...बस यही स्वर्ण मुहूर्त होगा तुम्हारा....

----- तुम्हारा कृपालु.


अरे मन ! अस तृष्णा बलवान |
बड़े बड़े भूपति भये भूतल, उदय अस्त लौं भान |
तिनहुँन की सोइ दशा रही जो, एक भिखारिहिं जान |
यह तृष्णा नहिं छोड़ति इंद्रहुँ, जेहि सुरपति सब मान |
जब लौ नहिं सुमिरहु मन निशिदिन, सुंदर श्याम सुजान |
... तब लौ सुख ‘कृपालु’ नहिं पैहौं, वेद पुरान प्रमान ||

भावार्थ- अरे मन ! यह तृष्णा इतनी बलवती है कि इस पृथ्वी पर बड़े-बड़े राजा हुए जिनका सम्पूर्ण धरातल पर राज्य था किंतु उनकी दशा भी ठीक एक भिखारी के समान थी | कहाँ तक कहें यह तृष्णा देवराज इन्द्र को भी नहीं छोड़ती जिसे सब देवताओं का स्वामी मानते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं, हे मन ! वेद पुराण चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि जब तक तू श्यामसुन्दर का निरन्तर स्मरण नहीं करेगा तब तक सुख न पा सकेगा |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

Monday, November 28, 2011



दयामय ! अपनो विरद विचार |
वेद पुरान बखान अकारन, करुनाकर सरकार |
पुनि तोहिं लगत पतित अति प्यारो, अस कह रसिक पुकार |
हौं अति पतित रहित साधन पुनि, पुनि मतिमंद गमार |
यह बड़ सोच, जान जग मो कहँ, तुम्हरोइ नंदकुमार |
... लाज बचाउ ‘कृपालु’ आपुनिहिं, अपनो जानि निहार ||


भावार्थ- हे दयालु श्यामसुन्दर ! तुम अपने विरद पर विचार करो | सरकार को वेदों-पुराणों में बिना कारण के ही कृपा करने वाला बतलाया है | फिर तुम्हारे संतों ने भी पुकार-पुकार कर यह कहा कि तुम पतितों से अत्यधिक प्यार करते हो | मैं तो अत्यधिक पतित हूँ, फिर साधनहीन हूँ, फिर बुद्धिहीन भी हूँ | मुझे सब से बड़ी चिन्ता यही है कि संसार मुझे तुम्हारा भक्त समझता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं – अतएव अपनी लज्जा की रक्षा करो, एवं मुझे अपना जान कर एक बार निहार दो |


(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.


नाथ ! हौं तुमहिं सोचि पछितात |
पितु सर्वज्ञ सर्वव्यापक अरु, सर्वसमर्थ कहात |
ता सुत द्वार लक्ष चौरासी, माँगत भीख लखात |
जानत जगहुँ कौन सुत, पितु कहँ, जासु बनी यह गात |
पुनि ज्ञानिहुँ-अज्ञेय पिता कहँ, किमि हौं जानि सकात |
... याते करु ‘कृपालु’ अनुकंपा, पितहिं लाज अब जात ||

भावार्थ- हे नाथ ! मुझे अपना पछतावा कुछ नहीं है, केवल तुम्हारे विषय में ही चिन्ता है | जो पिता सर्वज्ञ, सर्वव्यापक एवं सर्वसमर्थ कहलाता हो, उसका पुत्र चौरासी लाख दरवाजों पर भिक्षा माँगता फिरे, इसमें पिता का ही अपयश है | संसार में भी कौन सा नवजात शिशु अपने माता-पिता को जानता है किन्तु फिर भी माता-पिता यथाशक्ति उसका योग-क्षेम वहन करते ही हैं | तुम तो महान् ज्ञानियों से भी अज्ञेय हो, फिर हम अज्ञानी तुम्हें कैसे जान सकते हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं – इसलिए हे नाथ ! अब अपने पुत्र पर कृपा करो एवं अपने वात्सल्य से कृतार्थ करो, अन्यथा पिता की ही लाज जायगी |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.
सुधार अपने अंदर साधक को स्वयं करना है और भूलकर भी ये न सोचो कि भविष्य में कोई दिव्य शक्ति साधना करेगी। दिव्य शक्ति को जो कुछ करना है वह स्वयं करती है। उसके किए हुए अनुग्रह को भगवदप्राप्ति के पूर्व कोई समझ नहीं सकता। यही गंदी आदत यदि तुरंत नहीं छोड़ी तो नासूर बनकर विकर्मी बना देगी और फिर उच्छृंखल होकर कहोगे सब कुछ उन्ही को करना है। इसलिए तुरंत निश्चय बदलो।
-------श्री महाराजजी।



श्री महाराजजी कहते हैं कि:- आप जिससे प्यार करेंगे, उसी कि प्रोपेर्टी मिल जायेगी। देवताओं से प्यार करोगे तो, देवलोक मिल जायेगा, भूतों से प्यार करोगे,भूत लोक मिल जायेगा, मुझसे प्यार करोगे तो, तो मैं मिल जाऊंगा, तुम्हें क्या चाहिये? सोच लो,और उसी एरिया वाले से प्यार कर लो। देवताओं के विषय में बड़ी-बड़ी बातें हैं,उनके बड़े कानून हैं। लेकिन भगवान या महापुरुष के बारे में कुछ अक्ल लगाने की आवश्यकता नहीं हैं। बस भोले बालक बन कर सरैंडर करना है, शरणागत होना है, प्यार करना है, और कोई कडा कानून नहीं है।






अपना प्रत्येक कार्य करते समय सदा यही विश्वास रखो कि मेरे प्रत्येक कार्य को महाराजजी देख रहें हैं। और वो तो वास्तव में देख ही रहें हैं, हमें realize करना होगा बस।


महापुरुषों के वचनों को ही मानना है। उनके आचरण पर ध्यान कभी नहीं देना है। यदि वे हमारे साथ खिलवाड़ करें तो उनके सुख के लिए उसमें तन,मन से शामिल हों। लेकिन बुद्धि को उनके चरणों में डाल दो और उनसे दीनातिदीन होकर यही प्रार्थना करो की प्रभु बस इन श्री चरणों में ही सदा-सदा बनाये रखों। वे क्या हैं? हम नहीं जान सकते हैं। ये तो केवल वही जान सकता है जिस पर वो कृपा करके बोध करा देते हैं। केवल इतना ही दृढ़ विश्वास बनाये रखो कि वे ही हमारे सर्वस्व है। सर्वसमर्थ हैं सर्वांतर्यामी हैं और इतना ही नहीं वे तो हमारे बिलकुल अपने हैं और सदा से हम पर अकारण करुण हैं।
------जगद्गुरुत्तम श्री कृपालुजी महाराज।
हमारे प्यारे श्री महाराजजी (जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु) तो सदा से ही हम पर निगरानी रखते हैं। हमारे हर संकल्प हर क्रिया को हर क्षण हमारे साथ रहकर देखा करते हैं। यह हमारी कमी है कि हम उन्हें अपने साथ सदा महसूस नहीं कर पाते। बस पूर्ण दीनातिदीन होकर अपनी इंद्रिय,मन,बुद्धि को उनके चरणों में सदा-सदा के लिए चढ़ा दो। केवल उनकी आज्ञा ही हमारा चिंतन और उसका पालन ही हमारा काम है। बस इतनी साधना है। इसी बात पर आँसू बहाकर उनके चरणों को धोकर पी लो कि हम उन्हें सदा साथ-साथ महसूस क्यों नहीं करते।

Sunday, November 27, 2011



महापुरुषों के वचनों को ही मानना है। उनके आचरण पर ध्यान कभी नहीं देना है। यदि वे हमारे साथ खिलवाड़ करें तो उनके सुख के लिए उसमें तन,मन से शामिल हों। लेकिन बुद्धि को उनके चरणों में डाल दो और उनसे दीनातिदीन होकर यही प्रार्थना करो की प्रभु बस इन श्री चरणों में ही सदा-सदा बनाये रखों। वे क्या हैं? हम नहीं जान सकते हैं। ये तो केवल वही जान सकता है जिस पर वो कृपा करके बोध करा देते हैं। केवल इतना ही दृढ़ विश्वास बनाये रखो कि वे ही हमारे सर्वस्व है। सर्वसमर्थ हैं सर्वांतर्यामी हैं और इतना ही नहीं वे तो हमारे बिलकुल अपने हैं और सदा से हम पर अकारण करुण हैं।
------जगद्गुरुत्तम श्री कृपालुजी महाराज।
हमारे प्यारे श्री महाराजजी (जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु) तो सदा से ही हम पर निगरानी रखते हैं। हमारे हर संकल्प हर क्रिया को हर क्षण हमारे साथ रहकर देखा करते हैं। यह हमारी कमी है कि हम उन्हें अपने साथ सदा महसूस नहीं कर पाते। बस पूर्ण दीनातिदीन होकर अपनी इंद्रिय,मन,बुद्धि को उनके चरणों में सदा-सदा के लिए चढ़ा दो। केवल उनकी आज्ञा ही हमारा चिंतन और उसका पालन ही हमारा काम है। बस इतनी साधना है। इसी बात पर आँसू बहाकर उनके चरणों को धोकर पी लो कि हम उन्हें सदा साथ-साथ महसूस क्यों नहीं करते।



सुनो मन ! एक अनोखी बात |
काम क्रोध मद लोभ तजहु जनि, भजहु तिनहिं दिन रात |
काम इहै पै कब मोहिं मिलिहहिं, सुंदर श्यामल गात |
क्रोध इहै घनश्याम-मिलन बिन, जीवन बीत्यो जात |
रहु येदि मद मदमत दास हौं, स्वामी मम बलभ्रात |
... रह ‘कृपालु’ यह लोभ छिनहिँ छिन, बढ़इ प्रेम पिय नात ||

भावार्थ- अरे मन ! एक अनोखी बात सुन | तू काम, क्रोध, मद, लोभ का परित्याग न कर वरन् इनका दिन रात सेवन कर | किन्तु कामना यह रहे कि श्यामसुन्दर कब मिलेंगे ? क्रोध यह हो कि श्यामसुन्दर के मिले बिना मानव-जीवन समाप्त हुआ जा रहा है | मद यह रहे कि मैं श्यामसुन्दर का दास हूँ एवं वे मेरे स्वामी हैं | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि लोभ यह रहे कि श्यामसुन्दर के युगल चरणों में प्रत्येक क्षण प्रेम बढ़ता जाय |


(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.


हम श्यामसुंदर के आगे ,. उनको सामने खड़ा करके , रो कर उनका दर्शन , उनका प्रेम मांगे बस ...यही भक्ति है......और कुछ नहीं करना धरना है ...
ध्यान दो.....रो कर ...अकड कर नहीं .....
वो सब जानते हैं ....मक्कारी नहीं चलेगी वहां....अंतर्यामी हैं वो .......घट घट वासी हैं ...

जैसे कोई पानी में डूबने लगता है , और तैरना नहीं जानता है ... तो वो कितनी ब्याकुलता मैं हाथ ऊपर करता है ...कल्पना करके देखिये....सब ...समझ आ जायेगा..

जैसे मछली को पानी से बाहर डाल दो ...... कैसे तडपती है पानी के लिए ....सोचिये जरा..

ऐसे ही श्यामसुंदर से मिलने के लिए हमे भी तडपना ही होगा .......
इस जन्म में या फिर हजार जन्म बाद. फिर ........लेकिन करना ये ही पड़ेगा .....लौटकर यहीं आना पड़ेगा जहाँ इस समय हो.....

इसलिए अभी से अबाउट टर्न हो जाओ .......बुधि को बार बार समझाओ ...तब चलोगे तेजी से ...
जल्दी करो समय बहुत कम है...

मानव देह क्षण भंगुर है ...अगला पल मिले न मिले कोई गारंटी नहीं है ..यमराज ले जायेगा टाइम पूरा होते ही..कोई चांस नहीं मिलेगा दुबारा.....
बिना परमीसन के और बिना बताये ले जायेगा......

--------- तुम्हारा कृपालु.


होति जग इक अनहोनी बात |
जो नहिं होइ सक तीनि काल महँ, सोइ जग हो दिन रात |
रसिकन कह सिगरो जग दुलहिनि, दूलह श्यामल गात |
दूलह रस बिनु नीरस दुलहिनि, रस नहिं पाय सकात |
पै जग लखु सब दुलहिनि दुलहिनि, दुलहिनि की बनि जात |
... जो ‘कृपालु’ यह जान मरम सो, जोरत हरि सोँ नात ||

भावार्थ- संसार में एक ऐसी अनहोनी बात है जो सदा होती रहती है | वस्तुत: जो त्रिकाल में भी असम्भव है, वही बात दिन-रात हो, यह कितना बड़ा आश्चर्य है | रसिकजन कहते हैं – समस्त जीवात्माएँ परमात्मा श्यामसुन्दर की दुल्हन-स्वरूपा हैं | यह सर्वविदित है कि दुलहा श्यामसुन्दर दिव्य रस का भण्डार हैं एवं दुल्हन जीवात्मा अनादि काल से मायाधीन होने के कारण आनन्द-रस से वंचित है | अतएव सिद्ध हुआ कि बिना श्यामसुन्दर-रूपी प्रियतम की प्राप्ति के जीवात्मा-रूपी दुल्हन स्वप्न में भी आनन्द प्राप्ति नहीं कर सकती | किन्तु संसार का आश्चर्यमय कार्य देखो | एक दुल्हन जीवात्मा दूसरी दुल्हन जीवात्मा की दुल्हन बन जाती है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं जो इस रहस्य को जान लेता है वह तत्काल मायिक संसार से विरक्त होकर श्यामसुन्दर में अनुरक्त हो जाता है |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.
जो आँसू स्वयं गुरु आकर न पोंछे, तब तक उन्हें झूठे आँसू मानो।
-----श्री महाराजजी।



सब लोग दीनता, कम बोलने का अभ्यास करो, सहनशीलता बढ़ाने का अभ्यास करो। यही मेरी खुशी है।
------श्री महाराजजी।



दीनता का दूसरा नाम ही साधना है।
-----श्री महाराजजी।



जहाँ प्यार किया जाता है,वहाँ व्यवहार नहीं देखा जाता।
------श्री महाराजजी।





अपनी बुराई सुनकर सौभाग्य मानकर विभोर हो जाओ कि यह हमारा हितैषी है, क्योंकि हमारे दोषों को देखकर बता रहा है,अत: उन बुराइयों को निकालो।
-----श्री महाराजजी।

दयामय ! अपनो विरद विचार |
वेद पुरान बखान अकारन, करुनाकर सरकार |
पुनि तोहिं लगत पतित अति प्यारो, अस कह रसिक पुकार |
हौं अति पतित रहित साधन पुनि, पुनि मतिमंद गमार |
यह बड़ सोच, जान जग मो कहँ, तुम्हरोइ नंदकुमार |
... लाज बचाउ ‘कृपालु’ आपुनिहिं, अपनो जानि निहार ||


भावार्थ- हे दयालु श्यामसुन्दर ! तुम अपने विरद पर विचार करो | सरकार को वेदों-पुराणों में बिना कारण के ही कृपा करने वाला बतलाया है | फिर तुम्हारे संतों ने भी पुकार-पुकार कर यह कहा कि तुम पतितों से अत्यधिक प्यार करते हो | मैं तो अत्यधिक पतित हूँ, फिर साधनहीन हूँ, फिर बुद्धिहीन भी हूँ | मुझे सब से बड़ी चिन्ता यही है कि संसार मुझे तुम्हारा भक्त समझता है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं – अतएव अपनी लज्जा की रक्षा करो, एवं मुझे अपना जानकार एक बार निहार दो |


(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.
श्यामसुंदर तुमसे मिलने को व्याकुल हैं...किन्तु तुम यह नहीं जानते थे....

अब यदि जान भी गए हो तो...............................मानना नहीं चाहते......

तुमने संसार में अकारण करुणा का व्यवहार कहीं नहीं देखा है........शायद इसीलिए अप्रतीती होती है....
...
यदि तुम यह मान लो की.........वे आज और अभी ही तुमसे मिलने को व्याकुल हैं...तो बस तुम्हारे ह्रदय में भी उनके जैसी ही व्याकुलता उत्पन्न हो जाये और बस ...वे मिल जायेंगे...

वो तुम्हारे झूठ मूठे रूप ध्यान , नाम , गुण आदि को भी तन्मयता से सुनते और देखते हैं...की शायद अब की बार ठीक से करेगा.....

पर होता क्या है...? वो परखते ही रह जाते हैं...और तुम उनके अहैतुकी स्नेह को न समझने के कारण ठीक ठीक नहीं कर पाते.....

इसलिए तुम उपरोक्त बात को मान लो ...जिस समय तुम मेरी बात पर विश्वास कर लोगे...बस यही स्वर्ण मुहूर्त होगा तुम्हारा....

----- तुम्हारा कृपालु.

Thursday, November 24, 2011


किशोरी मोरी, सुनिय नेकु इक बात |
हौं मानत हौं परम पातकी, विश्व-विदित विख्यात |
पै यह कौन बात अचरज की, तव चरनन विलगात |
कोउ इक मोहिं बताउ तुमहिं तजि, बिनु पातक जग जात |
जेहि दरबार कृपा बिनु कारन, बटत रही दिन रात |
... तेहि दरबार भयो अब टोटो, यह अचरज दरसात |
मोहिं ‘कृपालु’ कछु आपुन सोच न, तोहिं सोचि पछितात ||

भावार्थ- हे वृन्दावन विहारिणी राधिके ! मैं आपसे एक छोटी-सी बात कहना चाहता हूँ, कृपया बुरा न मानते हुए सुन लीजिए | मैं स्वयं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि मैं समस्त संसार में प्रख्यात एवं विश्वविदित पापात्मा हूँ, पर साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि तुम्हारे चरण-कमलों से विमुख होने के कारण हूँ, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अनादि काल से लेकर आज तक के इतिहास में मुझे किसी एक जीव का भी नाम बता दीजिए जो तुमसे विमुख होकर भी संसार में निष्पाप हुआ हो | आश्चर्य तो यह है कि जिस दरबार में बिना कारण ही निरन्तर कृपा का वितरण हुआ करता था, आज उसी दरबार में मुझ पतित के लिए कृपणता की जा रही है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मुझे अपनी तो कोई भी चिन्ता नहीं, किन्तु तुम्हारे अपयश को सोचकर बार-बार शोक-सा हो रहा है; क्योंकि तुम्हारा यह अपयश मुझ अभागे पतित के द्वारा ही होगा |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.
चुरावति चित चितवनि नँदलाल |
यधपि महाविष्णु के ऐसेहिं, लोचन कमल विशाल |
पै ना जाने का जादू सखि, इन चितवनि गोपाल |
इन महँ रति-रस-सरस-प्रेम-रस, छ्लकत रह सब काल |
लखत लटू ह्वै जाति भटू सब, उमा रमा सी हाल |
... इक ‘कृपालु’ चितवनि महँ मूर्छित, गिर् यो काम बेहाल ||

भावार्थ- अरी सखी ! श्यामसुन्दर की मनोहर चितवन ने हमारा चित चुरा लिया | यधपि भगवान् महाविष्णु के भी नेत्र इसी प्रकार कमल के समान बड़े-बड़े हैं, फिर भी श्यामसुन्दर की इस चितवन में पता नहीं क्या जादू भरा हुआ है | अरी सखि ! इस चितवन से निरन्तर प्रेम-रस छलकता रहता है | उस चितवन को देखकर उमा, रमा, सरीखी भी तत्काल ही विभोर हो जाती हैं, फिर अन्य अंगनाओं की क्या बात कही जाय | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैंने तो यहाँ तक सुना है कि उनकी एक ही चितवनि में रास के समय कामदेव भी मूर्च्छित होकर गिर पड़ा था |


(प्रेम रस मदिरा श्रीकृष्ण - माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.

किशोरी मोरी, बिगरी देहु बनाय |
अति कोमल सुभाउ माँ तुम्हरो, वेद पुरानन गाय |
कासोँ कहूँ सुने को तुम बिनु ? मुझ दुखिया की माय |
मोरी दशा भली तुम जानत, कबहुँ न अघन अघाय |
कपटी कुटिल कुपूत रावरो, इत उत ठोकर खाय |
... भक्तिभाव कछु जानत नाहीँ, बनत रसिक-रस-राय |
अपनी ओर निहारि राधिके !, अब तो लेहु अपनाय |
मोहन सों इक बार मिला दो, परूँ तिहारे पाय |
तुम्हरो माय ! कहाय पूत अब, काके द्वारे जाय |
यह ‘कृपालु’ हठ पुरवहु राधे !, न तु सुत मातु लजाय ||

भावार्थ- हे ब्रजेश्वरी राधिके ! मेरी अनादि काल की बिगड़ी बना दीजिए | हे माँ राधे ! तुम्हारा हृदय अत्यन्त ही कोमल है, ऐसा वेदों और पुराणों ने बताया है | तुमको छोड़कर मैं दुखिया अपना दु:ख और किससे कहूँ, यदि कहूँ भी तो उसे पूर्ण करने की सामर्थ्य भी दूसरों में कहाँ है | हमारी अन्तरंग अवस्था को तुम अच्छी तरह जानती हो कि निरन्तर अनन्तान्त पापों को करते हुए भी, पापों से मेरा पेट नहीं भरता | तुम्हारा ही यह कपटी, दुष्ट कुपुत्र चौरासी लाख दरवाजों पर ठोकरें खा रहा है | माँ राधे ! मेरे अन्त:करण में नवधा-भक्ति के पाँचों भावों का लवलेश मात्र भी अंश नहीं है, फिर भी रसिकों का सिरमौर लोकरंजन के लिए बनता अवश्य हूँ | हे किशोरी जी ! अपनी वात्सल्यमयी दृष्टि के द्वारा, अपनी ओर देखकर, मुझे अब तो सदा के लिये अपना बना लो | मैं तुम्हारे चरण पकड़कर बार-बार यही माँगता हूँ कि प्यारे श्यामसुन्दर से एक बार अवश्य मिला दो | तुम्हारा पुत्र कहलाकर भी यदि मैं और किसी के द्वार पर जाऊँ तो यह शोभा नहीं देता | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि यह मेरा बाल-हठ अवश्य ही पूर्ण करो, अन्यथा यह पुत्र माता के नाम को कलंकित करेगा |

(प्रेम रस मदिरा दैन्य-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.
किसी व्यक्ति को तत्वज्ञान हो जाना और भगवतरूचि बने रहना, प्रभु को पाने की छटपटाहट बनी रहना,यह हजारों जन्मों के प्रयत्न से भी नहीं हो पाता। यही छटपटाहट भगवदप्राप्ति की जड़ है। यह वह चिंगारी है जो भगवदप्रेम रूपी अग्नि को प्रज़्जव्लित करेगी। इसमे निरंतर व्याकुलतापूर्वक स्मरण का तृण पड़ता रहे तो चिंगारी से ज्वाला निकले।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाप्रभु।


तोहिं पतित जनन ही प्यारे हैं,
हम अगनित पापन वारे हैं!
पुनि कत कर एतिक बेरी, न भुक्ति नाहीं मुक्ति मांगूँ मैं!
नित सेवा मांगूँ श्यामा श्याम तेरी, न भुक्ति नाहीं मुक्ति मांगूँ मैं!
बढ़ें भक्ति निष्काम नित मेरी, न भुक्ति नाहीं मुक्ति मांगूँ मैं!
जगद्गुरुत्तम प्रभु श्रीकृपालुजी महाराज की जय.............




"हम चाकर कुञ्ज बिहारी के"
यह वृन्दावन का रस है,इसको "कुञ्ज रस" कहते हैं ! और वृन्दावन के श्यामसुंदर को कुञ्ज बिहारी कहते हैं इसके आगे एक और रस होता है उसे "निकुंज रस" कहते हैं ! यहाँ जीव नहीं जा सकता, वो ललिता, विशाखा आदि का स्थान है ! उसके आगे "निभृत निकुंज" होता है, यहाँ ललिता, विशाखा आदि भी नहीं जा सकतीं, यहाँ केवल श्री राधाकृष्ण ही रहते हैं हम लोगों की जो अंतिम सीट है, वो "कुञ्ज रस" है ! इसलिए हम चाकर "कुञ्ज बिहारी" के हैं और ठाकुर जी के नहीं हैं -- मथुरा बिहारी, द्वारिका बिहारी, बैकुंठ बिहारी आदि के हम उपासक नहीं हैं !
.........................श्री महाराज जी

लगति सखि अब ससुरारि पियारि |
अब लौं रह अनजान पिया ते, रही उमरिया वारि |
अब दिय रसिक बताय पिया तव, मोहन मदन मुरारि |
अब न सुहात खेल गुड़ियन इन, दंपति पितु महतारि |
अब सोइ नाम रूप गुन लीला, धाम जनहिं मन हारि |
... कह ‘कृपालु’ जेहि चहत पिया बस, सोइ सुहागिनि नारि ||

भावार्थ- अरी सखि ! अब तो ससुराल ही अच्छी लगती है | अब तक मैं अपने प्रियतम को नहीं जानती थी, मायाधीन होने के कारण अज्ञानी थी, किन्तु अब रसिकों ने बता दिया है कि तेरे प्रियतम एकमात्र मदन-मोहन श्यामसुन्दर ही हैं | अब स्त्री, पति, माता, पिता, आदि संसार के नातेदार गुड़ियों के खेल के समान प्रतीत होते हैं | अब तो प्रियतम श्यामसुन्दर के ही नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, जन में ही मन अनुरक्त रहता है | ‘श्री कृपालु जी’ प्रेम भरी ईर्श्र्या में कहते हैं जिसको पिया चाहे वही सुहागिन नारी है | तेरे ऊपर श्यामसुन्दर की कृपा हो गई क्योंकि तूने रसिकों की बात पर विश्वास कर लिया | कभी हमारा भी समय आयेगा |

(प्रेम रस मदिरा सिद्धान्त-माधुरी)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति.