श्री महाराजजी के श्रीमुख से......!!!
1.हरि और गुरु केवल अधिकारी जीव को ही खींच सकते हैं, अनाधिकारी जीव को नहीं। जैसे लोहा जितनी ज्यादा मात्रा में शुद्ध होगा ,चुंबक से उतना ही शीघ्र खिंच जाएगा।
2.जब तक लोक और परलोक दोनों की चाहत रहेगी ,तब तक प्रेमानन्द नहीं मिल सकता।
1.हरि और गुरु केवल अधिकारी जीव को ही खींच सकते हैं, अनाधिकारी जीव को नहीं। जैसे लोहा जितनी ज्यादा मात्रा में शुद्ध होगा ,चुंबक से उतना ही शीघ्र खिंच जाएगा।
2.जब तक लोक और परलोक दोनों की चाहत रहेगी ,तब तक प्रेमानन्द नहीं मिल सकता।
3.प्रारब्ध उसी को कहते हैं कि जब दुख कि कल्पना की जाये किन्तु सुख प्राप्त हो,अथवा सुख की कल्पना की जाये और दुख प्राप्त हो।
4.श्री महाराजजी कहते हैं कि: जितनी क्षमा हम करते हैं ,उतना कोई नहीं कर सकता। कई बार सोचते है कि उसका परित्याग कर दिया जाये ,किन्तु फिर दया आ जाती है।
5.श्री महाराजजी समझाते हैं कि: जब हम कोई बात पूछे तो भोले बच्चों की भाँति सीधा सा उत्तर दिया करो।
6.जो शत प्रतिशत आज्ञापालन के लिए तैयार नहीं है ,वह कैसे आगे बढ्ने की आशा कर सकता है।
7.बुद्धि से गलत और विपरीत चिंतन करके साधक स्वयं अपना अहित कर लेता है।
8.दैहिक, दैविक, भौतिक तापो से तप्त भगवदबहिर्मुख जीवों को हरि सन्मुख करने के लिए जगदगुरु श्री कृपालुजी महाराज भगवन्नाम संकीर्तन को ही सर्वश्रेष्ठ बताते है ,भगवन्नाम में पाप नाश करने की ऐसी शक्ति है की बड़े से बड़े पापी, सभी पापों से मुक्त होकर दिव्य प्रेम का पात्र बन जाता है।
-------जगद्गुरुत्तम श्री कृपालुजी महाराज।
4.श्री महाराजजी कहते हैं कि: जितनी क्षमा हम करते हैं ,उतना कोई नहीं कर सकता। कई बार सोचते है कि उसका परित्याग कर दिया जाये ,किन्तु फिर दया आ जाती है।
5.श्री महाराजजी समझाते हैं कि: जब हम कोई बात पूछे तो भोले बच्चों की भाँति सीधा सा उत्तर दिया करो।
6.जो शत प्रतिशत आज्ञापालन के लिए तैयार नहीं है ,वह कैसे आगे बढ्ने की आशा कर सकता है।
7.बुद्धि से गलत और विपरीत चिंतन करके साधक स्वयं अपना अहित कर लेता है।
8.दैहिक, दैविक, भौतिक तापो से तप्त भगवदबहिर्मुख जीवों को हरि सन्मुख करने के लिए जगदगुरु श्री कृपालुजी महाराज भगवन्नाम संकीर्तन को ही सर्वश्रेष्ठ बताते है ,भगवन्नाम में पाप नाश करने की ऐसी शक्ति है की बड़े से बड़े पापी, सभी पापों से मुक्त होकर दिव्य प्रेम का पात्र बन जाता है।
-------जगद्गुरुत्तम श्री कृपालुजी महाराज।
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