( भक्ति का वास्तविक स्वरुप )
भक्ति में अनन्यता परमावश्यक है । केवल श्रीक्रुष्ण एवं उनके नाम, रुप, गुण, लीला,धाम तथा गुरु में ही मन का लगाव रहे । अन्य देव, मानव या मायिक पदार्थ में मन का लगाव न हो । इसका तात्पर्य यह न समझ लो कि संसार से भागना है ।वास्तव में संसार का सेवन करते समय उसमें सुख नहीं मानना है । श्रीक्रुष्ण का प्रसाद मान कर खाना पानी एवं व्यवहार करना है । यह समस्त ज्ञान सदा साथ रखकर सावधान होकर साधना भक्ति करने पर शीघ्र ही मन अपने स्वामी से मिलने को अत्यन्त व्याकुल उठेगा । बस यही व्याकुलता ही भक्ति का वास्तविक स्वरुप है.
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज.
भक्ति में अनन्यता परमावश्यक है । केवल श्रीक्रुष्ण एवं उनके नाम, रुप, गुण, लीला,धाम तथा गुरु में ही मन का लगाव रहे । अन्य देव, मानव या मायिक पदार्थ में मन का लगाव न हो । इसका तात्पर्य यह न समझ लो कि संसार से भागना है ।वास्तव में संसार का सेवन करते समय उसमें सुख नहीं मानना है । श्रीक्रुष्ण का प्रसाद मान कर खाना पानी एवं व्यवहार करना है । यह समस्त ज्ञान सदा साथ रखकर सावधान होकर साधना भक्ति करने पर शीघ्र ही मन अपने स्वामी से मिलने को अत्यन्त व्याकुल उठेगा । बस यही व्याकुलता ही भक्ति का वास्तविक स्वरुप है.
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज.
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