कामना ' प्रेम ' का विरोधी तत्व है । लेने - देने का नाम व्यापार है । जिसमें #प्रेमास्पद से कुछ #याचना की भावना हो , वह प्रेम नहीं है । जिसमें सब कुछ देने पर भी तृप्ति न हो , वही प्रेम है । संसार में कोई व्यक्ति किसी से इसलिये प्रेम नहीं कर सकता क्योंकि प्रत्येक #जीव#स्वार्थी है वह #आनन्द चाहता है , अस्तु लेने - लेने की भावना रखता है । जब दोनों पक्ष लेने- लेने की घात में हैं तो मैत्री कितने क्षण चलेगी ? तभी तो स्त्री - पति , बाप - बेटे में दिन में दस बार टक्कर हो जाती है । जहाँ दोनों लेने - लेने के चक्कर में हैं , वहाँ टक्कर होना स्वाभाविक ही है और जहाँ टक्कर हुई , वहीं वह नाटकीय #स्वार्थजन्य प्रेम समाप्त हो जाता है । वास्तव में #कामनायुक्त प्रेम प्रतिक्षण घटमान होता है ,जबकि - #दिव्य #प्रेम प्रतिक्षण वर्द्धमान होता है । #कामना #अन्धकार - #स्वरुप है , #प्रेम - #प्रकाश #स्वरुप है ।
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