एक
बड़ी विलक्षण बात यह है कि लोग बड़े दावे से यह कहा करते हैं कि संसार
मिथ्या है,इसमें सुख नहीं है,फिर भी संसार की ही ओर तेजी से भागे जा रहे
हैं। इसका एक रहस्य है,गंभीरतापूर्वक समझिये।
हम लोग संसार-सम्बन्धी धन,पुत्र,स्त्री,पति आदि के अभाव में झुंझला कर,'संसार मिथ्या है',ऐसा कह देते हैं। परन्तु ज्यों ही उपर्युक्त धन-पुत्रादि मिल जाते हैं,पुन: इसी में लिपट जाते हैं। वस्तुत:संसार को मिथ्या नहीं कहते। यथा-जब एक पिता का पुत्र मर जाता है तो उसके शव को पिता आदि श्मशान ले जाते हैं एवं यह नारा लगाते जाते हैं कि 'राम नाम सत्य है'। इस नारे का वास्तविक अर्थ तो यही है कि पुत्र किसी का नहीं होता,व्यर्थ ही उसमें आसक्त होकर लोग अशान्त होते हैं,सत्य वस्तु तो एकमात्र ईश्वर ही है। किन्तु ,ऐसा भाव पिता आदि का नहीं होता। आप कहेंगे,अवश्य होता होगा। परन्तु इसका परिचय तो तभी मिल सकता है जब कदाचित् पुत्र पुन: जीवित हो उठे। तब पिता आदि तत्क्षण 'राम नाम सत्य है' का नारा बन्द कर देंगे,क्योंकि अब बेटा सत्य है। यहाँ तक कि शव को जलाने के बाद लौटते समय भी कोई 'राम नाम सत्य है' नहीं बोलता। इसका अन्तरंग रहस्य कुछ और है। वह यह कि संसार में ऐसा कोई ही तत्त्वज्ञानी गृहस्थी होगा जो 'राम नाम सत्य है' को मंगलवाचक मानता हो। यदि किसी पिता की पुत्री श्वसुरालय के लिए विदा हो रही हो,पालकी चलने वाली हो और कोई महानुभाव उस समय 'राम नाम सत्य है' बोल दें तो कदाचित् वह पिटे बिना न छूटे। यदि राम नाम मंगलमय है, इतना भी ज्ञान किसी को होता तो वह तो बड़ा प्रसन्न होता कि हमारी पुत्री का यह गृहस्थ प्रवेश परम मंगलमय होगा। किन्तु,ऐसे आस्तिक गृहस्थी अंगुलियों पर गिने जाने वाले ही होंगे। क्योंकि समस्त संसार के लोग 'राम नाम सत्य है' का अर्थ यही लगाते हैं कि यदि यह नारा लगाया गया तो शायद कोई मर जायगा।अब सोचिये,राम नाम अमरत्व देने वाला है किन्तु,आस्तिक समाज उसका क्या सदुपयोग कर रहा है! वस्तुस्थिति तो यह है कि धन,पुत्र,स्त्री,पति आदि को ही हम लोग आनन्द का केन्द्र समझते हैं और उन्हीं की रक्षा एवं वृद्धि के लिए प्राय: ईश्वर को मानते हैं। तब फिर भला धन,पुत्रादि के अभाव को हम श्रेष्ठ कैसे मानेंगे ? हम तो धन नष्ट होने पर ही कहेंगे कि लक्ष्मी चंचल है,वह किसी एक की नहीं है। यही हमारा ज्ञान है जिसका भावार्थ पूर्ण अज्ञान ही है। जब-जब संसार सम्बन्धी किसी प्रिय वस्तु का अभाव होता है,हम यह कह देते हैं कि संसार मिथ्या है। किसी पुत्र ने पिता को डाँटा,किसी ने अपमान किया,बस ज्ञान हो गया कि पुत्र,पत्नी आदि सब स्वार्थी है,सब धोखेबाज हैं। मैं किसी से प्यार न करुँगा,मैंने जान लिया,समझ लिया,किन्तु दो मिनट बाद जैसे ही पुत्र या स्त्री ने कहा-क्षमा कीजियेगा,मैं भांग पीकर कुछ अनर्गल शब्द बोल गया था,आप तो मेरे सर्वस्व हैं,'बस,तुरन्त आपका ज्ञान बदल गया एवं आप कहने लगे-'वही तो मैं सोच रहा था कि मेरा पुत्र अथवा स्त्री अथवा पति ऐसा कैसे कह सकता है!'अर्थात् पुत्र एवं पति सब स्वार्थी हैं,यह ज्ञान अभाव में हुआ था,जब वे अनुकूल हो गये तब ज्ञान बदल गया। बस,यही स्थिति हमारी सर्वत्र, सर्वदा रहती है।भावार्थ यह कि हम लोग संसार के अभाव से घृणा करते हैं,संसार से नहीं।
हम लोग संसार-सम्बन्धी धन,पुत्र,स्त्री,पति आदि के अभाव में झुंझला कर,'संसार मिथ्या है',ऐसा कह देते हैं। परन्तु ज्यों ही उपर्युक्त धन-पुत्रादि मिल जाते हैं,पुन: इसी में लिपट जाते हैं। वस्तुत:संसार को मिथ्या नहीं कहते। यथा-जब एक पिता का पुत्र मर जाता है तो उसके शव को पिता आदि श्मशान ले जाते हैं एवं यह नारा लगाते जाते हैं कि 'राम नाम सत्य है'। इस नारे का वास्तविक अर्थ तो यही है कि पुत्र किसी का नहीं होता,व्यर्थ ही उसमें आसक्त होकर लोग अशान्त होते हैं,सत्य वस्तु तो एकमात्र ईश्वर ही है। किन्तु ,ऐसा भाव पिता आदि का नहीं होता। आप कहेंगे,अवश्य होता होगा। परन्तु इसका परिचय तो तभी मिल सकता है जब कदाचित् पुत्र पुन: जीवित हो उठे। तब पिता आदि तत्क्षण 'राम नाम सत्य है' का नारा बन्द कर देंगे,क्योंकि अब बेटा सत्य है। यहाँ तक कि शव को जलाने के बाद लौटते समय भी कोई 'राम नाम सत्य है' नहीं बोलता। इसका अन्तरंग रहस्य कुछ और है। वह यह कि संसार में ऐसा कोई ही तत्त्वज्ञानी गृहस्थी होगा जो 'राम नाम सत्य है' को मंगलवाचक मानता हो। यदि किसी पिता की पुत्री श्वसुरालय के लिए विदा हो रही हो,पालकी चलने वाली हो और कोई महानुभाव उस समय 'राम नाम सत्य है' बोल दें तो कदाचित् वह पिटे बिना न छूटे। यदि राम नाम मंगलमय है, इतना भी ज्ञान किसी को होता तो वह तो बड़ा प्रसन्न होता कि हमारी पुत्री का यह गृहस्थ प्रवेश परम मंगलमय होगा। किन्तु,ऐसे आस्तिक गृहस्थी अंगुलियों पर गिने जाने वाले ही होंगे। क्योंकि समस्त संसार के लोग 'राम नाम सत्य है' का अर्थ यही लगाते हैं कि यदि यह नारा लगाया गया तो शायद कोई मर जायगा।अब सोचिये,राम नाम अमरत्व देने वाला है किन्तु,आस्तिक समाज उसका क्या सदुपयोग कर रहा है! वस्तुस्थिति तो यह है कि धन,पुत्र,स्त्री,पति आदि को ही हम लोग आनन्द का केन्द्र समझते हैं और उन्हीं की रक्षा एवं वृद्धि के लिए प्राय: ईश्वर को मानते हैं। तब फिर भला धन,पुत्रादि के अभाव को हम श्रेष्ठ कैसे मानेंगे ? हम तो धन नष्ट होने पर ही कहेंगे कि लक्ष्मी चंचल है,वह किसी एक की नहीं है। यही हमारा ज्ञान है जिसका भावार्थ पूर्ण अज्ञान ही है। जब-जब संसार सम्बन्धी किसी प्रिय वस्तु का अभाव होता है,हम यह कह देते हैं कि संसार मिथ्या है। किसी पुत्र ने पिता को डाँटा,किसी ने अपमान किया,बस ज्ञान हो गया कि पुत्र,पत्नी आदि सब स्वार्थी है,सब धोखेबाज हैं। मैं किसी से प्यार न करुँगा,मैंने जान लिया,समझ लिया,किन्तु दो मिनट बाद जैसे ही पुत्र या स्त्री ने कहा-क्षमा कीजियेगा,मैं भांग पीकर कुछ अनर्गल शब्द बोल गया था,आप तो मेरे सर्वस्व हैं,'बस,तुरन्त आपका ज्ञान बदल गया एवं आप कहने लगे-'वही तो मैं सोच रहा था कि मेरा पुत्र अथवा स्त्री अथवा पति ऐसा कैसे कह सकता है!'अर्थात् पुत्र एवं पति सब स्वार्थी हैं,यह ज्ञान अभाव में हुआ था,जब वे अनुकूल हो गये तब ज्ञान बदल गया। बस,यही स्थिति हमारी सर्वत्र, सर्वदा रहती है।भावार्थ यह कि हम लोग संसार के अभाव से घृणा करते हैं,संसार से नहीं।
----जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
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