न्याय अब तुम ही करो ब्रजराज !
हम पतितन सरताज, तुमहिँ कह, पतितन को सरताज |
दोउ राजा निज प्रजा पूज्य अति, साजे निज निज साज |
पतितन प्यार करत दोउन को, कबहुँ न आई लाज |
पतितन ही सों हमरो तुम्हरो, नाम बड़ो जग आज |
पुनि ‘कृपालु’ तुम कत बिनु पातक, हम पातकन जहाज ||
हम पतितन सरताज, तुमहिँ कह, पतितन को सरताज |
दोउ राजा निज प्रजा पूज्य अति, साजे निज निज साज |
पतितन प्यार करत दोउन को, कबहुँ न आई लाज |
पतितन ही सों हमरो तुम्हरो, नाम बड़ो जग आज |
पुनि ‘कृपालु’ तुम कत बिनु पातक, हम पातकन जहाज ||
भावार्थ – हे ब्रजराज ! हमारे तुम्हारे निम्नलिखित झगड़े का निर्णय हम
तुम्हीं से चाहते हैं | हम भी यदि पापियों के सरताज हैं तो तुम भी तो पतित
पावन रूप से पापियों के सरताज हो | हम और तुम दोनों ही पतित जनों के अति ही
पूज्य हैं, भले ही साज पृथक् – पृथक् क्यों न हों अर्थात् जो पतित
तुम्हारी शरण नहीं गये, उन सबके पूज्य हम हैं, तथा जो पतित तुम्हारी ही शरण
में चले गये हैं उनके पूज्य तुम हो | हम और तुम दोनों पतितों से प्यार
करने में थोड़ा भी संकोच नहीं करते | पतितों से ही हमारा और तुम्हारा दोनों
का ही नाम संसार में प्रख्यात है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि फिर तुम
किस प्रकार पतितों के समस्त पापों को लेकर भी निष्पाप बने रहते हो और मैं
प्रतिक्षण पापों के बोझों से दबा जा रहा हूँ |
( प्रेम रस मदिरा दैन्य – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
( प्रेम रस मदिरा दैन्य – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
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