साधक
व् सिद्ध दोनों ही अपने को महापापी कहते हैं। यह भक्तों की अहंकार शून्यता
है। अपने आराध्य की महानता के समक्ष वे अपने को क्षुद्र मानते हैं। लेकिन
जो घोर संसारी हैं जो अत्यंत पातकी हैं वो अहंकार वश स्वयं को कभी भी पापी
स्वीकार नहीं करते।
----- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
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