प्रेम
की परिभाषा में दो बातें खास हैं । एक तो निरंतर हो, और एक, निष्काम हो।
अपने सुख की कामना न हो । अपने सुख की कामना आई। तो अपना सुख पूरा हुआ सेंट
परसेंट, तो प्यार सेंट परसेंट। अपना अगर उससे कम सिद्ध हुआ, तो प्रेम कम।
बिलकुल नहीं सिद्ध हुआ स्वार्थ उससे, प्रेम खत्म। यह तो संसार में होता है,
यह तो व्यापार है ।हम चाय में, दूध में एक चम्मच चीनी डालें, थोड़ी मीठी।
दो चम्मच डाला, और मीठी हो गयी। तीन चम्मच डाला और मीठी हो गयी। यह तो एक
बिजनेस है। यह प्रेम नहीं। इसलिये दिन में दस बार
आपका प्रेम स्त्री से, पति से, बाप से, बेटे से, अप-डाउन, अप - डाउन होता
रहता है। स्वार्थ की लिमिट के अनुसार। तो सबसे पहली शर्त है, अपने सुख को
छोड़ना होगा ।यहीं हम फेल हो जाते हैं। अनंत बार भगवान् मिले हमको, अनन्त
बार संत मिले हमको। हम उनके पास गये । लेकिन अपने सुख की कामना, अपने
स्वार्थ की कामना को लेकर गये।
.....सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका),जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
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