किशोरी मोरी, करहु कृपा की कोर।
बहुविधि नाच नचावति स्वामिनि!, यह माया बरजोर।
काम क्रोध अरु लोभ मोह मद, घेरे चहुँ दिशि चोर।
जानतहूँ नहिं मानत ठानत, हठहिँ हठी मन मोर।
सुत वित नारि पियारि लगति अति, यदपि कहावत तोर।
ताते दै निज प्रेम ‘कृपालुहिं, हेरहु हमरिहुँ ओर।।
बहुविधि नाच नचावति स्वामिनि!, यह माया बरजोर।
काम क्रोध अरु लोभ मोह मद, घेरे चहुँ दिशि चोर।
जानतहूँ नहिं मानत ठानत, हठहिँ हठी मन मोर।
सुत वित नारि पियारि लगति अति, यदपि कहावत तोर।
ताते दै निज प्रेम ‘कृपालुहिं, हेरहु हमरिहुँ ओर।।
भावार्थ:- हे किशोरी जी! मुझ पर कृपा दृष्टि करो। यह प्रबल माया मुझे अनेक प्रकार के नाच नचा रही है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह ये बड़े-बड़े शत्रु चारों ओर से घेरे हुए हैं। सब कुछ जानते हुए भी यह हठीला मन दुराग्रह के कारण नहीं मानता, संसार की ओर ही जाता है। यधपि मैं तुम्हारा कहलाता हूँ फिर भी धन, पुत्र, स्त्री आदि से प्यार करता हूँ। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं इसलिए एक बार हमारी ओर भी देखकर, अपना विशुद्ध प्रेम देकर कृतार्थ करो।
(प्रेम रस मदिरा:-दैन्य-माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।
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