सखी! ये, दृग न दृगन सुख पाये।
निरखत ही छवि नव नीरद तनु, आनँद जल भरि आये।
पुनि बिछुरत ही श्याम सुरति करि, दृग अँसुवन झरि लाये।
दुहूँ भाँति तिय लखि न सकति पिय, बिनु देखे घबराये
विधि बुधि गइ सठियाय हाय! जो अँखियन पलक बनाये।
करि ‘कृपालु’ पिय दृग पट, पलकनि, क्यों न कपाट लगाये।।
निरखत ही छवि नव नीरद तनु, आनँद जल भरि आये।
पुनि बिछुरत ही श्याम सुरति करि, दृग अँसुवन झरि लाये।
दुहूँ भाँति तिय लखि न सकति पिय, बिनु देखे घबराये
विधि बुधि गइ सठियाय हाय! जो अँखियन पलक बनाये।
करि ‘कृपालु’ पिय दृग पट, पलकनि, क्यों न कपाट लगाये।।
भावार्थ:–(एक विरहिणी अपनी अन्तरंग सखी से कहती है।)
अरी सखी! इन आँखों को देखने का सुख कभी न मिला। क्योंकि जब ही नवीन बादलों की कान्ति के समान चिन्मय देह वाले श्यामसुन्दर को देखती हैं, तभी इन आँखों में आनन्द के आँसू भर आते हैं जिससे श्यामसुन्दर को नहीं देख पातीं एवं श्यामसुन्दर के वियोग में उनका स्मरण करके आँखों में जल भरा रहता है, अतएव इन आँखों को प्रियतम के दर्शन का सुख कभी नहीं मिल पाता इसके अतिरिक्त ब्रह्मा की बुद्धि भी भ्रष्ट–सी हो गयी जिसने आँखों में पलक बनाकर प्रियतम के मिलने में और भी एक व्यवधान–सा पैदा कर दिया है। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरी सखी! तू इस झगड़े में क्यों पड़ती है? तू अपने प्रियतम को आँखों के कमरे में बन्द करके पलकों के किवाड़ लगाकर नित्य ही मधुर–मिलन का अनुभव किया कर।
अरी सखी! इन आँखों को देखने का सुख कभी न मिला। क्योंकि जब ही नवीन बादलों की कान्ति के समान चिन्मय देह वाले श्यामसुन्दर को देखती हैं, तभी इन आँखों में आनन्द के आँसू भर आते हैं जिससे श्यामसुन्दर को नहीं देख पातीं एवं श्यामसुन्दर के वियोग में उनका स्मरण करके आँखों में जल भरा रहता है, अतएव इन आँखों को प्रियतम के दर्शन का सुख कभी नहीं मिल पाता इसके अतिरिक्त ब्रह्मा की बुद्धि भी भ्रष्ट–सी हो गयी जिसने आँखों में पलक बनाकर प्रियतम के मिलने में और भी एक व्यवधान–सा पैदा कर दिया है। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरी सखी! तू इस झगड़े में क्यों पड़ती है? तू अपने प्रियतम को आँखों के कमरे में बन्द करके पलकों के किवाड़ लगाकर नित्य ही मधुर–मिलन का अनुभव किया कर।
(प्रेम रस मदिरा:-विरह–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।
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