Sunday, October 21, 2018

माई री मैं तो! आजु परी निधि पाई।
जेहि खोजत मोहिं युग युग बीत्यो, पर् यो न कतहुँ लखाई।
तेहि मोहिँ साधनहीन जानि के, रसिकन दई बताई।
पारस लहि बौरात रंक ज्यों, त्यों हौं गई बौराई।
भरी गुमान रैन दिन डोलति, करति सदा मनभाई।
सो ‘कृपालु’ बिनु मोल मिलत निधि, राधे नाम सदाई।।
भावार्थ:–अरी माई! मुझे तो आज बिना परिश्रम के ही पड़ा हुआ खजाना मिल गया। जिस निधि को खोजते हुए मुझे अनन्तानन्त जन्म बीत गये फिर भी जो कहीं नहीं प्राप्त हुई, रसिकों ने मुझे समस्त साधनाओं से हीन समझ कर उसे बता दिया। जिस प्रकार एक भिखारी सहसा पारस पा जाने पर पागल हो जाता है, उसी प्रकार मैं भी उस निधि को पाकर उन्मत्त सी हो गयी। अब मैं बड़े ही गर्व के साथ, किसी की परवाह न करते हुये, दिन रात विचरा करती हूँ तथा अनादिकाल से अपूर्ण इच्छाओं को पूर्ण कर रही हूँ। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि वह निधि ‘राधे’ नाम की है एवं रसिकों की कृपा से सर्वत्र ही प्राप्त है।
(प्रेम रस मदिरा:-सिद्धान्त–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।

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