न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा।
(३-१-८, मुण्डकोपनिषत्)
(३-१-८, मुण्डकोपनिषत्)
वेद कह रहा है, ये इन्द्रिय-मन-बुद्धि किसी से भी ग्राह्य नहीं है, ‘मैं’ और ‘मेरा’। और, इतना ही नहीं,
बड़ी-बड़ी तपश्चर्याओं से भी नहीं जाना जा सकता।
बड़े-बड़े तपस्वी हुए हैं हमारे देश में, वायु खाके रहने वाले, ‘मैं’, ‘मेरे’ को नहीं जान सकते।
‘मैं’, ‘मेरे’ को वह जानता है, जिसको दिव्य बुद्धि मिले।
और दिव्य बुद्धि उसको मिलती है, जिसकी माया चली जाये।
और माया उसकी जाती है, जो भगवान् की कृपा पा ले। और भगवान् की कृपा वह प्राप्त करता है,
जो भक्ति के द्वारा अन्तःकरण शुद्ध करके अधिकारी बन जाये। तो, इसलिए इन्द्रिय-मन-बुद्धि से प्रयत्न करना ही नहीं चाहिए।
बड़ी-बड़ी तपश्चर्याओं से भी नहीं जाना जा सकता।
बड़े-बड़े तपस्वी हुए हैं हमारे देश में, वायु खाके रहने वाले, ‘मैं’, ‘मेरे’ को नहीं जान सकते।
‘मैं’, ‘मेरे’ को वह जानता है, जिसको दिव्य बुद्धि मिले।
और दिव्य बुद्धि उसको मिलती है, जिसकी माया चली जाये।
और माया उसकी जाती है, जो भगवान् की कृपा पा ले। और भगवान् की कृपा वह प्राप्त करता है,
जो भक्ति के द्वारा अन्तःकरण शुद्ध करके अधिकारी बन जाये। तो, इसलिए इन्द्रिय-मन-बुद्धि से प्रयत्न करना ही नहीं चाहिए।
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