सुनी इन, कानन जब ते तान।
तब ते बिसरि गई सुधि सिगरी, कान करैं सखि! का न?।
अब सो तान सुरीली मुरलिहिं, छुटत न कैसेहुँ ध्यान।
अब सो ध्यान जरावत हमरो, सिगरो तन, मन, प्रान।
अब सो प्रान पयान करन चह, रह्यो न कछु मोहिं भान।
अब ‘कृपालु’ सोइ भान रहत इक, सुनहुँ तान नहिं आन।।
तब ते बिसरि गई सुधि सिगरी, कान करैं सखि! का न?।
अब सो तान सुरीली मुरलिहिं, छुटत न कैसेहुँ ध्यान।
अब सो ध्यान जरावत हमरो, सिगरो तन, मन, प्रान।
अब सो प्रान पयान करन चह, रह्यो न कछु मोहिं भान।
अब ‘कृपालु’ सोइ भान रहत इक, सुनहुँ तान नहिं आन।।
भावार्थ:– एक विरहिणी कहती है कि अरी सखी! जब से इन कानों ने श्यामसुन्दर की सुरीली तान सुनी है तब से मुझे कोई सुधि नहीं है। ये कान जो न करें वह थोड़ा है। अरी सखी! अब तो उस मुरली की तान का ध्यान एक क्षण के लिए भी नहीं हटता एवं तान का ध्यान रहने के कारण विरह में मेरा तन, मन, प्रान सभी जल रहा है और कहाँ तक कहूँ अब मेरा प्राण निकलना चाहता है। मुझे कुछ भी होश नहीं है। ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में मुझे एक ही होश है कि वह तान फिर कब सुनूँ।
(प्रेम रस मदिरा:-विरह–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।
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