प्रश्न:
जब सभी वेद-शास्त्रो ने यही कहा है कि भगवान/गुरु को केवल आपका मन-बुद्धि
ही चाहिये तो फिर ये तन-मन-धन अर्पित करने वाली बात कहाँ तक प्रासंगिक/सही
है ??
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज द्वारा उत्तर: यह सही हैं कि भगवत्क्षेत्र में केवल मन-बुद्धि के समर्पण का ही महत्व हैं लेकिन इसमें रहस्य की बात यह है कि हम मायाधीन जीवो का मन-बुद्धि दोनो ही अनादि काल से संसार(मायाधीन व्यक्तियो या मायिक वस्तुओ) में ही बहुत अधिक आसक्त हैं; अतः जब आप वो वस्तु ही हरि-गुरु को सौंप दोगे जहाँ आपका मन-बुद्धि आसक्त हैं तो उस वस्तु के साथ-साथ मन-बुद्धि स्वतः ही ईश्वरीय-क्षेत्र में चली जायेंगी, इसी उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण ने भागवत में कहा भी हैं कि-
'यच्चातिप्रियमात्मानम् तत्तन्निवेदयेन्मह्यम्'
अर्थात् जहाॅ-जहाॅ तुम्हारे मन की आसक्ति हैं वो सब मुझे सौंप दो तो उसके साथ ही उसमें आसक्त तुम्हारा मन-बुद्धि मेरे पास आ जायेंगे; और यह ज्ञात रहे कि मनुष्य की सर्वाधिक आसक्ति अपने शरीर और धन-सम्पत्ति में ही होती हैं उसके बाद अन्य कही होती हैं ।
इसीलिये सभी संत सभी पंथ एकस्वर से कहते हैं कि तन-मन-धन सब कुछ सहर्ष(हरि-गुरु से ही हमारा असली स्वार्थ हैं ये भलीभाॅति समझकर) हरि-गुरु के श्रीचरणो में सौंपना ही होगा अन्यथा ना तो आप कभी शरणागत होंगे ना ही कभी वास्तविक भक्ति/साधना प्रारम्भ होगी और ना ही कभी वास्तविक भगवत्कृपा/गुरुकृपा प्राप्त कर अपने परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति को प्राप्त ही कर पायेंगे !!!!
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज द्वारा उत्तर: यह सही हैं कि भगवत्क्षेत्र में केवल मन-बुद्धि के समर्पण का ही महत्व हैं लेकिन इसमें रहस्य की बात यह है कि हम मायाधीन जीवो का मन-बुद्धि दोनो ही अनादि काल से संसार(मायाधीन व्यक्तियो या मायिक वस्तुओ) में ही बहुत अधिक आसक्त हैं; अतः जब आप वो वस्तु ही हरि-गुरु को सौंप दोगे जहाँ आपका मन-बुद्धि आसक्त हैं तो उस वस्तु के साथ-साथ मन-बुद्धि स्वतः ही ईश्वरीय-क्षेत्र में चली जायेंगी, इसी उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण ने भागवत में कहा भी हैं कि-
'यच्चातिप्रियमात्मानम् तत्तन्निवेदयेन्मह्यम्'
अर्थात् जहाॅ-जहाॅ तुम्हारे मन की आसक्ति हैं वो सब मुझे सौंप दो तो उसके साथ ही उसमें आसक्त तुम्हारा मन-बुद्धि मेरे पास आ जायेंगे; और यह ज्ञात रहे कि मनुष्य की सर्वाधिक आसक्ति अपने शरीर और धन-सम्पत्ति में ही होती हैं उसके बाद अन्य कही होती हैं ।
इसीलिये सभी संत सभी पंथ एकस्वर से कहते हैं कि तन-मन-धन सब कुछ सहर्ष(हरि-गुरु से ही हमारा असली स्वार्थ हैं ये भलीभाॅति समझकर) हरि-गुरु के श्रीचरणो में सौंपना ही होगा अन्यथा ना तो आप कभी शरणागत होंगे ना ही कभी वास्तविक भक्ति/साधना प्रारम्भ होगी और ना ही कभी वास्तविक भगवत्कृपा/गुरुकृपा प्राप्त कर अपने परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति को प्राप्त ही कर पायेंगे !!!!
ये सब तो मक्कारी की बाते होती हैं कि
- अजी ! हम गुरु को भगवान को क्या दे सकते हैं??
- हम तो जी मन से ही भक्ति करते हैं बस !!
- सब कुछ उनका ही हैं जी ! ये बाल-बच्चे, घर-गृहस्थी भी उन्ही की हैं इन सबमें धन-सम्पत्ति खर्च करना भी तो भगवान की ही सेवा हैं !
ये सब लोग तो बस तैयार रहे नरक जाने के लिये और भयंकर दण्ड भोगने के लिये क्योकि संसारिक विषयो को भोगने के लिये तो सब कुछ फूॅकते ही रहते हैं लेकिन अपने परमार्थ को बनाने के लिये कुछ नही करते इन लोगो का तो अधःपतन निश्चित हैं, ना ही भगवान ऐसे लोगो के लिये कुछ कर सकते और ना ही कोई संत/सद्गुरु !!!!
★★★जय श्रीराधे★★★
- अजी ! हम गुरु को भगवान को क्या दे सकते हैं??
- हम तो जी मन से ही भक्ति करते हैं बस !!
- सब कुछ उनका ही हैं जी ! ये बाल-बच्चे, घर-गृहस्थी भी उन्ही की हैं इन सबमें धन-सम्पत्ति खर्च करना भी तो भगवान की ही सेवा हैं !
ये सब लोग तो बस तैयार रहे नरक जाने के लिये और भयंकर दण्ड भोगने के लिये क्योकि संसारिक विषयो को भोगने के लिये तो सब कुछ फूॅकते ही रहते हैं लेकिन अपने परमार्थ को बनाने के लिये कुछ नही करते इन लोगो का तो अधःपतन निश्चित हैं, ना ही भगवान ऐसे लोगो के लिये कुछ कर सकते और ना ही कोई संत/सद्गुरु !!!!
★★★जय श्रीराधे★★★
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