Sunday, July 24, 2016
अरे
मनुष्यों ! कल से भजूँगा, कल से भजूँगा मत कहो, मत सोचो । क्यों...? अरे!
वह जो तुम्हारी खोपड़ी पर सवार है काल, यमराज । क्या पता कल के पहले ही
टिकट कट जाये रात ही को । ऐसे रोज उदाहरण हमारे विश्व में हो रहे हैं, कि
रात को एक आदमी सोया और सदा को सो गया । न दर्द हुआ, न चिल्लाया, न घर
वालों को मालूम हुआ। घर वाले समझ रहे हैं सो रहा है, आज बड़ी देर तक सोता
रहा, अरे भई जगा दो । जगाने गये तो मालूम हुआ सदा को सो गया, इसका टिकट कट
गया । एक माँ के पेट में ही मर गया,एक पैदा होते ही तुरंत
मर गया,एक 25 साल का I.A.S.करके फ्लाइट से घर आ रहा था,सब घर वाले खुश और
पता चला रास्ते में ही प्लेन क्रैश में मर गया,बाप ले जा रहा है बेटे को
जलाने,पर बाप को होश नहीं है कि मुझको भी जाना है। देख तो रहे हैं हम रोज़
आसपास कि क्या हो रहा है। लेकिन भगवान को याद करने का भजन करने का टाइम
किसी के पास नहीं है। planning बन रही हैं बड़ी-बड़ी,पल का भरोसा नहीं और कोई
पंचवर्षीय योजना कोई दस वर्षीय योजना बना रहा है,अरे! बिगड़ी बना लो जिसके
लिए ये मानव देह भगवान ने तुमको कृपावश दिया है। ये नाती-पोते,ये बेटा-बेटी
कोई तुम्हारे नहीं है जिनमे तुम उलझे हुए हो रात दिन। ये सब तो स्वार्थ
आधारित रिश्ते हैं,कोई किसी का नहीं है यहाँ।
इसलिये कल से भजूँगा यह मत कहो, मत सोचो, तुरंत करो... उधार मत करो । उधार करने की आदत हमारी तमाम जन्मों से है और इसलिये हम अनादिकाल से अब तक चौरासी लाख में घूम रहें है एक कारण। अनंत संत मिले समझाया हम समझे लेकिन उधार कर दिया । करेंगे... करेंगे । तन मन धन ये तीन का उपयोग करना था तीनों के लिये हमने उधार कर दिया । करेंगे, बुढ़ापे में कर लेंगे अभी इतनी जल्दी भी क्या है । मन तो और बिगड़ा हुआ है । धन से तो इतना प्यार है कि कोई भी परमार्थ के काम में खर्च करने में भी बुद्धि लगाते हैं - ''करें, कि न करें? कर दो भगवान के निमित्त । अरे! रहने दो... अरे! नहीं कर दो, अरे! नहीं क्यों निकालो जेब से, अरे! चलो अब कर ही देते हैं । नहीं अब कल करेंगे,'' ये हम लोगों का हाल है सोचियेगा अकेले में । यही सब होता है । तो उधार करना बन्द करना है । मानव देह क्यो मिला है,इसपर विचार करो,संभलों और अपनी बिगड़ी अभी भी बना लो,नहीं तो करोड़ों वर्षों तक यूँ ही 84 लाख में भटकते रहोगे। ये अवसर भी हाथ से चूक जाएगा। संसार में व्यवहार करो,मन भगवान को दे दो। अभी से भजन करो,भक्ति करो,संसार से मन हटाओ,भगवान में लगाओ। उधार करना बंद करो।
इसलिये कल से भजूँगा यह मत कहो, मत सोचो, तुरंत करो... उधार मत करो । उधार करने की आदत हमारी तमाम जन्मों से है और इसलिये हम अनादिकाल से अब तक चौरासी लाख में घूम रहें है एक कारण। अनंत संत मिले समझाया हम समझे लेकिन उधार कर दिया । करेंगे... करेंगे । तन मन धन ये तीन का उपयोग करना था तीनों के लिये हमने उधार कर दिया । करेंगे, बुढ़ापे में कर लेंगे अभी इतनी जल्दी भी क्या है । मन तो और बिगड़ा हुआ है । धन से तो इतना प्यार है कि कोई भी परमार्थ के काम में खर्च करने में भी बुद्धि लगाते हैं - ''करें, कि न करें? कर दो भगवान के निमित्त । अरे! रहने दो... अरे! नहीं कर दो, अरे! नहीं क्यों निकालो जेब से, अरे! चलो अब कर ही देते हैं । नहीं अब कल करेंगे,'' ये हम लोगों का हाल है सोचियेगा अकेले में । यही सब होता है । तो उधार करना बन्द करना है । मानव देह क्यो मिला है,इसपर विचार करो,संभलों और अपनी बिगड़ी अभी भी बना लो,नहीं तो करोड़ों वर्षों तक यूँ ही 84 लाख में भटकते रहोगे। ये अवसर भी हाथ से चूक जाएगा। संसार में व्यवहार करो,मन भगवान को दे दो। अभी से भजन करो,भक्ति करो,संसार से मन हटाओ,भगवान में लगाओ। उधार करना बंद करो।
--------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
Do
not expect true love and positive behavior from others. Remember, they
are under the three modes of maya just as you are. Do not allow anyone's
negative behavior to affect your sadhana. Keep the nature of the world
in mind, and you will remain undisturbed.
..........JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ.
..........JAGADGURU SHRI KRIPALUJI MAHARAJ.
Friday, July 8, 2016
जो
मेरी ही शरण में आ जाता है उसके अनन्त जन्म के पाप को नाश कर देता हूँ !
तो फिर पाप पाप की बात क्यों खोपड़ी में लगी है तेरे ? मैं पूर्ण शरणागत के
थोड़े से पापों को नहीं , 'सर्वपापेभ्यो ' समस्त पापों को नष्ट कर देता
हूँ और आगे पाप न करेगा ये ठेका ले लेता हूँ ! गारण्टी ! लेकिन प्रपन्न
होना होगा ! प्रपन्न माने पूर्ण शरणागति यानी मन बुद्धि भी शरणागत हो !
अपनी बुद्धि न लगा ! मन भी मुझे दे दे !
.........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ।
.........जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ।
प्रश्न:
जब सभी वेद-शास्त्रो ने यही कहा है कि भगवान/गुरु को केवल आपका मन-बुद्धि
ही चाहिये तो फिर ये तन-मन-धन अर्पित करने वाली बात कहाँ तक प्रासंगिक/सही
है ??
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज द्वारा उत्तर: यह सही हैं कि भगवत्क्षेत्र में केवल मन-बुद्धि के समर्पण का ही महत्व हैं लेकिन इसमें रहस्य की बात यह है कि हम मायाधीन जीवो का मन-बुद्धि दोनो ही अनादि काल से संसार(मायाधीन व्यक्तियो या मायिक वस्तुओ) में ही बहुत अधिक आसक्त हैं; अतः जब आप वो वस्तु ही हरि-गुरु को सौंप दोगे जहाँ आपका मन-बुद्धि आसक्त हैं तो उस वस्तु के साथ-साथ मन-बुद्धि स्वतः ही ईश्वरीय-क्षेत्र में चली जायेंगी, इसी उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण ने भागवत में कहा भी हैं कि-
'यच्चातिप्रियमात्मानम् तत्तन्निवेदयेन्मह्यम्'
अर्थात् जहाॅ-जहाॅ तुम्हारे मन की आसक्ति हैं वो सब मुझे सौंप दो तो उसके साथ ही उसमें आसक्त तुम्हारा मन-बुद्धि मेरे पास आ जायेंगे; और यह ज्ञात रहे कि मनुष्य की सर्वाधिक आसक्ति अपने शरीर और धन-सम्पत्ति में ही होती हैं उसके बाद अन्य कही होती हैं ।
इसीलिये सभी संत सभी पंथ एकस्वर से कहते हैं कि तन-मन-धन सब कुछ सहर्ष(हरि-गुरु से ही हमारा असली स्वार्थ हैं ये भलीभाॅति समझकर) हरि-गुरु के श्रीचरणो में सौंपना ही होगा अन्यथा ना तो आप कभी शरणागत होंगे ना ही कभी वास्तविक भक्ति/साधना प्रारम्भ होगी और ना ही कभी वास्तविक भगवत्कृपा/गुरुकृपा प्राप्त कर अपने परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति को प्राप्त ही कर पायेंगे !!!!
जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज द्वारा उत्तर: यह सही हैं कि भगवत्क्षेत्र में केवल मन-बुद्धि के समर्पण का ही महत्व हैं लेकिन इसमें रहस्य की बात यह है कि हम मायाधीन जीवो का मन-बुद्धि दोनो ही अनादि काल से संसार(मायाधीन व्यक्तियो या मायिक वस्तुओ) में ही बहुत अधिक आसक्त हैं; अतः जब आप वो वस्तु ही हरि-गुरु को सौंप दोगे जहाँ आपका मन-बुद्धि आसक्त हैं तो उस वस्तु के साथ-साथ मन-बुद्धि स्वतः ही ईश्वरीय-क्षेत्र में चली जायेंगी, इसी उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण ने भागवत में कहा भी हैं कि-
'यच्चातिप्रियमात्मानम् तत्तन्निवेदयेन्मह्यम्'
अर्थात् जहाॅ-जहाॅ तुम्हारे मन की आसक्ति हैं वो सब मुझे सौंप दो तो उसके साथ ही उसमें आसक्त तुम्हारा मन-बुद्धि मेरे पास आ जायेंगे; और यह ज्ञात रहे कि मनुष्य की सर्वाधिक आसक्ति अपने शरीर और धन-सम्पत्ति में ही होती हैं उसके बाद अन्य कही होती हैं ।
इसीलिये सभी संत सभी पंथ एकस्वर से कहते हैं कि तन-मन-धन सब कुछ सहर्ष(हरि-गुरु से ही हमारा असली स्वार्थ हैं ये भलीभाॅति समझकर) हरि-गुरु के श्रीचरणो में सौंपना ही होगा अन्यथा ना तो आप कभी शरणागत होंगे ना ही कभी वास्तविक भक्ति/साधना प्रारम्भ होगी और ना ही कभी वास्तविक भगवत्कृपा/गुरुकृपा प्राप्त कर अपने परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति को प्राप्त ही कर पायेंगे !!!!
ये सब तो मक्कारी की बाते होती हैं कि
- अजी ! हम गुरु को भगवान को क्या दे सकते हैं??
- हम तो जी मन से ही भक्ति करते हैं बस !!
- सब कुछ उनका ही हैं जी ! ये बाल-बच्चे, घर-गृहस्थी भी उन्ही की हैं इन सबमें धन-सम्पत्ति खर्च करना भी तो भगवान की ही सेवा हैं !
ये सब लोग तो बस तैयार रहे नरक जाने के लिये और भयंकर दण्ड भोगने के लिये क्योकि संसारिक विषयो को भोगने के लिये तो सब कुछ फूॅकते ही रहते हैं लेकिन अपने परमार्थ को बनाने के लिये कुछ नही करते इन लोगो का तो अधःपतन निश्चित हैं, ना ही भगवान ऐसे लोगो के लिये कुछ कर सकते और ना ही कोई संत/सद्गुरु !!!!
★★★जय श्रीराधे★★★
- अजी ! हम गुरु को भगवान को क्या दे सकते हैं??
- हम तो जी मन से ही भक्ति करते हैं बस !!
- सब कुछ उनका ही हैं जी ! ये बाल-बच्चे, घर-गृहस्थी भी उन्ही की हैं इन सबमें धन-सम्पत्ति खर्च करना भी तो भगवान की ही सेवा हैं !
ये सब लोग तो बस तैयार रहे नरक जाने के लिये और भयंकर दण्ड भोगने के लिये क्योकि संसारिक विषयो को भोगने के लिये तो सब कुछ फूॅकते ही रहते हैं लेकिन अपने परमार्थ को बनाने के लिये कुछ नही करते इन लोगो का तो अधःपतन निश्चित हैं, ना ही भगवान ऐसे लोगो के लिये कुछ कर सकते और ना ही कोई संत/सद्गुरु !!!!
★★★जय श्रीराधे★★★
तमाम
धर्म भ्रम में डालने वाले हैं और हमको तो भ्रम मिटाना है ? भ्रम माने
माया, जिसके कारण आनंद प्राप्ति से वंचित हैं। तो केवल पुण्डरीकाक्ष
श्रीकृष्ण में मन का लगाव कर दें। सरेंडर(surrender) कर दें, शरणागत कर दे,
उनकी भक्ति करे, बस।
इसके अतिरिक्त कोई धर्म ही नहीं होता। धर्म माने धारण करने योग्य। बस श्रीकृष्ण को धारण करो, यही धर्म है क्योंकि हम श्रीकृष्ण के दास हैं।
जिसने श्रीकृष्ण की भक्ति की, वह समस्त धर्मों को कर चुका। सारे धर्म उसको नमस्कार करेंगे। उसे कुछ नहीं करना।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
इसके अतिरिक्त कोई धर्म ही नहीं होता। धर्म माने धारण करने योग्य। बस श्रीकृष्ण को धारण करो, यही धर्म है क्योंकि हम श्रीकृष्ण के दास हैं।
जिसने श्रीकृष्ण की भक्ति की, वह समस्त धर्मों को कर चुका। सारे धर्म उसको नमस्कार करेंगे। उसे कुछ नहीं करना।
------जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
साधुओं
का शरीर ही तीर्थ स्वरूप है,उनके दर्शन से ही पुण्य होता है। साधुओं और
तीर्थों में एक बड़ा भारी अंतर है ,तीर्थों में जाने का फल तो कालान्तर में
मिलता है किन्तु साधुओं के समागम का फल तत्काल ही मिल जाता है। अत: सच्चे
साधुओं का सत्संग तो बहुत दूर की बात है ,उनका दर्शन ही कोटि तीर्थों से
अधिक होता है।
जय श्री राधे।
जय श्री राधे।
उस
ईश्वर को युगों तक परिश्रम करके भी कोई नहीं जान सकता है किंतु उस ईश्वर
की जिस पर कृपा हो जाती है वह उसे पूर्णतया जान लेता है एवं कृतार्थ हो
जाता है। सर्वात्म-समर्पण से मुक्ति एवम् भगवत्कृपा का लाभ हो सकता है।
हमें ईश्वर के शरणागत हो जाना है ऐसी शरणागत के आधार पर ही ईश्वर कृपा
निर्भर है। जो-जो जीव आत्माएं उसके शरणागत हो गई, वह-वह अपने परम चरम
लक्ष्य परमानंद को प्राप्त कर चुकी हैं एवम् जो शरणागत नहीं हुई है उन्ही
के ऊपर ईश्वर की कृपा नहीं हुई है एवं वही अपने लक्ष्य से वंचित होकर 84
लाख योनियो में काल, कर्म, स्वभाव, गुणाधीन होकर चक्कर लगा रही हैं।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
---- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
बताऊँ, तो कहँ सखि ! का बात |
सुनहु सखी ! ललिता, वाकी कछु, बात कही नहिं जात |
कहत मधुर बोलनि मो ते अस, ‘तुम ही सों मम नात’ |
पै विहरत चंद्रावलि घर वह, नेकहुँ नाहिं लजात |
कह्यो कालि अइहौं अध रातिहिं, करिहौं तव मनभात |
नहिं आयो ‘कृपालु’ परखत रहि, तलफत बीती रात ||
सुनहु सखी ! ललिता, वाकी कछु, बात कही नहिं जात |
कहत मधुर बोलनि मो ते अस, ‘तुम ही सों मम नात’ |
पै विहरत चंद्रावलि घर वह, नेकहुँ नाहिं लजात |
कह्यो कालि अइहौं अध रातिहिं, करिहौं तव मनभात |
नहिं आयो ‘कृपालु’ परखत रहि, तलफत बीती रात ||
भावार्थ – मानिनी वृषभानुनन्दिनी ललिता सखी से कहती हैं कि अरी सखी !
मैं तुझसे क्या बात बताऊँ | उस छलिया की कुछ बात कहने योग्य ही नहीं है |
वह बड़े मधुर बोल से मुझसे कहता है कि मेरा प्रेम एकमात्र तुम्हीं से है
किन्तु चन्द्रावली के घर में नित्य विहार करने जाया करता है | उसको थोड़ी भी
लज्जा नहीं है | कल उसने मुझसे कहा कि मैं अर्द्धरात्रि में आऊँगा एवं
तुम्हारा मनभाया करूँगा | ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में किशोरी जी कहती
हैं फिर भी वह नहीं आया, मैं परखती रही एवं पूरी रात तड़पती रही |
( प्रेम रस मदिरा मान – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
( प्रेम रस मदिरा मान – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
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