सखी! मैं, सुनी कालि इक बात।
सखिन जूह जुरि-जुरि कालिन्दी, पुलिन रहीं बतरात।
एक सखी कह ‘प्रान तजहु अब, मिलहिं न पिय किय घात’।
अपर सखी कह ‘जब पिय सुनिहैं, तजि दैहैं निज गात’।
एक सखी पुनि यौं उठि बोली, ‘प्रान रहे केहि भाँत’।
अपर सखी कह ‘कोटि कल्प लौं, परखहु पद-जलजात’।
कह ‘कृपालु’ ग्रीष्म ऋतु बीते, आवति पुनि बरसात।।
सखिन जूह जुरि-जुरि कालिन्दी, पुलिन रहीं बतरात।
एक सखी कह ‘प्रान तजहु अब, मिलहिं न पिय किय घात’।
अपर सखी कह ‘जब पिय सुनिहैं, तजि दैहैं निज गात’।
एक सखी पुनि यौं उठि बोली, ‘प्रान रहे केहि भाँत’।
अपर सखी कह ‘कोटि कल्प लौं, परखहु पद-जलजात’।
कह ‘कृपालु’ ग्रीष्म ऋतु बीते, आवति पुनि बरसात।।
भावार्थ:– (सखियों के परस्पर किये हुए वार्तालाप को सुनकर एक सखी दूसरी सखी से कहती हैं।)
अरी सखी! मैंने कल एक बात सुनी है। कल यमुना किनारे सखियों का समुदाय इकट्ठा होकर परस्पर बातें कर रहा था। सर्वप्रथम एक सखी ने समस्त सखियों के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि अरी सखियों! अब हम सबको प्राण छोड़ देना ही उचित है, क्योंकि श्यामसुन्दर ने विश्वासघात किया है, अब वे नहीं आयेंगे। दूसरी सखी ने पहली सखी की बात काटते हुए कहा कि यह उचित नहीं है, क्योंकि जब हमारी मृत्यु का समाचार प्रियतम पावेंगे तक वे भी अत्यन्त दु:खी होकर अपना प्राण छोड़ देंगे, अतएव अपने सुख के लिए प्रियतम को दु:खी करना यह प्रेम लक्ष्य नहीं है। इस पर तीसरी सखी ने कहा कि यह तो मैं भी जानती हूँ, पर यह बताओ कि किस प्रकार प्राण धारण करूँ? इस पर चौथी सखी ने कहा कि करोड़ों कल्प तक प्रियतम के दर्शनों की प्रतीक्षा करते हुए प्राण धारण करना चाहिए, क्योंकि निराशा प्रेम का स्वरूप नहीं है। प्राण तो कोई विरहिणी तब छोड़ना चाहेगी जब उसे प्रियतम के मिलन की आशा ही न रह जाय। ‘श्री कृपालु जी’ समस्त सखियों से कहते हैं कि ऐ री सखियों! चिन्ता मत करो ग्रीष्मऋतु-रूपी वियोग के बाद वर्षाऋतु-रूपी मधुर-मिलन का शुभागमन होगा ही।
अरी सखी! मैंने कल एक बात सुनी है। कल यमुना किनारे सखियों का समुदाय इकट्ठा होकर परस्पर बातें कर रहा था। सर्वप्रथम एक सखी ने समस्त सखियों के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि अरी सखियों! अब हम सबको प्राण छोड़ देना ही उचित है, क्योंकि श्यामसुन्दर ने विश्वासघात किया है, अब वे नहीं आयेंगे। दूसरी सखी ने पहली सखी की बात काटते हुए कहा कि यह उचित नहीं है, क्योंकि जब हमारी मृत्यु का समाचार प्रियतम पावेंगे तक वे भी अत्यन्त दु:खी होकर अपना प्राण छोड़ देंगे, अतएव अपने सुख के लिए प्रियतम को दु:खी करना यह प्रेम लक्ष्य नहीं है। इस पर तीसरी सखी ने कहा कि यह तो मैं भी जानती हूँ, पर यह बताओ कि किस प्रकार प्राण धारण करूँ? इस पर चौथी सखी ने कहा कि करोड़ों कल्प तक प्रियतम के दर्शनों की प्रतीक्षा करते हुए प्राण धारण करना चाहिए, क्योंकि निराशा प्रेम का स्वरूप नहीं है। प्राण तो कोई विरहिणी तब छोड़ना चाहेगी जब उसे प्रियतम के मिलन की आशा ही न रह जाय। ‘श्री कृपालु जी’ समस्त सखियों से कहते हैं कि ऐ री सखियों! चिन्ता मत करो ग्रीष्मऋतु-रूपी वियोग के बाद वर्षाऋतु-रूपी मधुर-मिलन का शुभागमन होगा ही।
(प्रेम रस मदिरा:- विरह-माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:- राधा गोविन्द समिति।
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