दीन के तुम ही दीनानाथ।
नर किन्नर सुर कोउ देत नहिं, दीन हीन को साथ।
जब लौं तन धन जन को बल रह, गावत सब गुन गाथ।
लखतहिं निबल प्रबल स्वारथरत, तजत दंपतिहुं हाथ।
पुनि उन बाँह गहे न गहे का ? तुम बिनु सबै अनाथ।
अब कृपालु अपनाय ‘कृपालुहिं’ धरहु हाथ मम माथ।।
नर किन्नर सुर कोउ देत नहिं, दीन हीन को साथ।
जब लौं तन धन जन को बल रह, गावत सब गुन गाथ।
लखतहिं निबल प्रबल स्वारथरत, तजत दंपतिहुं हाथ।
पुनि उन बाँह गहे न गहे का ? तुम बिनु सबै अनाथ।
अब कृपालु अपनाय ‘कृपालुहिं’ धरहु हाथ मम माथ।।
भावार्थ:- हे दीनानाथ श्यामसुन्दर! दीन जनों के एकमात्र तुम्हीं नाथ हो। हे श्यामसुन्दर! मनुष्य, किन्नर, देवता आदि कोई भी असमर्थ का साथ नहीं देता। संसार में जब तक किसी के पास शरीर, सम्पति एवं व्यक्तियों का बल रहता है तब तक सभी लोग उसके गुण गाया करते हैं और जैसे ही वह इन साधनों से रहित हो जाता है, वैसे ही प्रबल स्वार्थी प्राणाधिक प्यार का वादा करने वाले स्त्री पति भी हाथ छोड़ देते हैं। फिर इन मायाधीन रंग साथियों के हाथ पकड़ने से भी क्या लाभ। तुम्हारे बिना मैं अनाथ के समान हूँ। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं–हे श्यामसुन्दर! अब ‘कृपालु’ को अपनाकर कृतार्थ करो, एवं अपना हाथ सदा के लिए मेरे सिर पर रख दो।
(प्रेम रस मदिरा:- दैन्य–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:- राधा गोविन्द समिति।
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