संसार
में प्रथम तो वैराग्य होना कठिन है। यदि वैराग्य हो भी गया तो कर्मकाण्ड
का छूटना कठिन है। यदि कर्मकाण्ड से छुटकारा मिल गया तो काम क्रोधादि से
छूटकर दैवी सम्पत्ति प्राप्त करना कठिन है। यदि दैवी संपत्ति भी आ गई तो भी
सदगुरु मिलना कठिन है। यदि सदगुरु भी मिल जाय तो भी उनके वाक्य में
श्रद्धा होकर ज्ञान होना कठिन है। और यदि ज्ञान भी हो जाय तो भी चित्त-
वृत्ति का स्थिर रहना कठिन है।
यह स्थिति तो केवल भगवत्कृपा से ही होती है, इसका कोई अन्य साधन नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास जी भी कहते हैं :--
" यह गुन साधन तें नहिं होई।
तुम्हारी कृपा पाव कोई कोई।।"
यह स्थिति तो केवल भगवत्कृपा से ही होती है, इसका कोई अन्य साधन नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास जी भी कहते हैं :--
" यह गुन साधन तें नहिं होई।
तुम्हारी कृपा पाव कोई कोई।।"
अतः विषयों से मन को हटाकर भगवत्तत्व गुरू से पूर्ण श्रद्धा के साथ समझकर
उनके बताये गए मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिए। तभी हमारा कल्याण होगा।
जो मनुष्य संसार को नाशवान और हरि- गुरु को सदा का साथी समझकर चलता है, वही उत्तम गति पाता है।
......श्री महाराजजी।
जो मनुष्य संसार को नाशवान और हरि- गुरु को सदा का साथी समझकर चलता है, वही उत्तम गति पाता है।
......श्री महाराजजी।
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