◆◆#मानव_देह : #एक_अनमोल_हीरा◆◆
मानव देह प्राप्त सभी जीव परम सौभाग्यशाली हैं। देवताओं से भी अधिक बड़भागी
हैं। नारद पुराण में कहा गया -
हैं। नारद पुराण में कहा गया -
‘दुर्लभं मानुषं जन्म प्रार्थ्यते त्रिदशैरपि‘
अर्थात् देवता भी इस देह को पाने के लिए लालायित रहते हैं लेकिन यह देह उनके
लिये भी दुर्लभ है। रामायण कहती है -
लिये भी दुर्लभ है। रामायण कहती है -
‘कबहुँक करि करुणा नर देही, देत ईश बिनु हेतु सनेही‘
ये तो कभी कभी किसी बड़भागी को भगवत्कृपा से प्राप्त होता है। अर्थात् 84 लाख
प्रकार के देहधारियों में केवल मनुष्य देहधारी ही सर्वश्रेष्ठ है। वेदों, शास्त्रों में सर्वत्र इस देह
की भूरि भूरि प्रशंसा की गई है। ज्ञान प्रधान एवं विशेषतः कर्म प्रधान होने के कारण ही
इसकी वंदना की गई है। पुरुषार्थ करने का अधिकार केवल मनुष्य को प्राप्त है। भक्ति रूपी
पुरुषार्थ के द्वारा इसमें भगवान को प्राप्त करके जीव सदा सदा के लिए कृतार्थ हो सकता है,
आनंदित हो सकता है और एकमात्र भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से ही ये देह हमें दिया गया है।
अर्थात् ये देह एक अनमोल हीरे के समान है जो हमारे कल्याण के लिए भगवान द्वारा उपहार
स्वरूप हमें प्रदान किया गया है। लेकिन इसका मूल्य न समझने के कारण ही अधिकांश लोग इस देह द्वारा सासरिक विषयों का उपभोग करके निरंतर इसका दुरुपयोग कर रहे हैं, इसके
एक-एक मूल्यवान क्षण को व्यर्थ गँवा रहे हैं। संसार में आसक्त होने, दैहिक सुखों को लक्ष्य
बनाने का परिणाम केवल 84 लाख योनियों में भ्रमण करते हुए अनंतानंत दुःख भोगना ही है।
इसीलिए ऐसे अविवेकी मनुष्य को तुलसीदास जी ने आत्महत्यारा कहा है -
प्रकार के देहधारियों में केवल मनुष्य देहधारी ही सर्वश्रेष्ठ है। वेदों, शास्त्रों में सर्वत्र इस देह
की भूरि भूरि प्रशंसा की गई है। ज्ञान प्रधान एवं विशेषतः कर्म प्रधान होने के कारण ही
इसकी वंदना की गई है। पुरुषार्थ करने का अधिकार केवल मनुष्य को प्राप्त है। भक्ति रूपी
पुरुषार्थ के द्वारा इसमें भगवान को प्राप्त करके जीव सदा सदा के लिए कृतार्थ हो सकता है,
आनंदित हो सकता है और एकमात्र भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से ही ये देह हमें दिया गया है।
अर्थात् ये देह एक अनमोल हीरे के समान है जो हमारे कल्याण के लिए भगवान द्वारा उपहार
स्वरूप हमें प्रदान किया गया है। लेकिन इसका मूल्य न समझने के कारण ही अधिकांश लोग इस देह द्वारा सासरिक विषयों का उपभोग करके निरंतर इसका दुरुपयोग कर रहे हैं, इसके
एक-एक मूल्यवान क्षण को व्यर्थ गँवा रहे हैं। संसार में आसक्त होने, दैहिक सुखों को लक्ष्य
बनाने का परिणाम केवल 84 लाख योनियों में भ्रमण करते हुए अनंतानंत दुःख भोगना ही है।
इसीलिए ऐसे अविवेकी मनुष्य को तुलसीदास जी ने आत्महत्यारा कहा है -
‘जो न तरै भवसागर नर समाज अस पाई,
सो कृत निंदक मंदमति आतमहन गति जाई।‘
सो कृत निंदक मंदमति आतमहन गति जाई।‘
अतएव विवेकी पुरुष को इस देवदुर्लभ अमूल्य रत्न रूपी देह का महत्व समझकर
इसके द्वारा अपने परम चरम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति के लिए ही प्रयास करना चाहिए अन्यथा
‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्‘ बारंबार जन्म मरण का चक्र चलता
रहेगा और अनेकानेक दुःख सहता हुआ जीव इस भवाटवी में घूमता रहेगा। जैसे हाथ में आए
रत्न को फेंक देना नासमझी है, इसी प्रकार इस अनमोल मानव देह रूपी रत्न का मूल्य न
समझकर संसार में इसका दुरुपयोग करना भी पराकाष्ठा का अज्ञान है।
इसके द्वारा अपने परम चरम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति के लिए ही प्रयास करना चाहिए अन्यथा
‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्‘ बारंबार जन्म मरण का चक्र चलता
रहेगा और अनेकानेक दुःख सहता हुआ जीव इस भवाटवी में घूमता रहेगा। जैसे हाथ में आए
रत्न को फेंक देना नासमझी है, इसी प्रकार इस अनमोल मानव देह रूपी रत्न का मूल्य न
समझकर संसार में इसका दुरुपयोग करना भी पराकाष्ठा का अज्ञान है।