माधो! मोहिं लूटीं ब्रजनार।
पोथी पत्रा छोरि छारि मम, दियो बनाय लबार।
लै निरुपाधि समाधि बहायो, प्रेम पयोधि मझार।
निर्गुन ध्यान भुलाय, दियो मोहिं, ध्यान सगुन साकार।
छोरि जोग मोहिं भोग सिखायो, तुम सँग नंदकुमार।
जब ‘कृपालु’ लिय लूटि सबै तब, कस न बहे जलधार।।
पोथी पत्रा छोरि छारि मम, दियो बनाय लबार।
लै निरुपाधि समाधि बहायो, प्रेम पयोधि मझार।
निर्गुन ध्यान भुलाय, दियो मोहिं, ध्यान सगुन साकार।
छोरि जोग मोहिं भोग सिखायो, तुम सँग नंदकुमार।
जब ‘कृपालु’ लिय लूटि सबै तब, कस न बहे जलधार।।
भावार्थ:– प्रेमरस विभोर उद्धव श्यामसुन्दर से कहते हैं कि ब्रज गोपियों ने मुझे लूट लिया। मेरे ज्ञान सम्बन्धी पोथी पत्रा को छीन कर मुझे लबरा सिद्ध कर दिया। मेरी निरुपाधि समाधि को लेकर प्रेम समुद्र में बहा दिया। मेरे निर्गुण ज्ञान को भुलाकर सगुण साकार भगवान का ध्यान दे दिया। मेरे योग को छीन कर तुम्हारे साथ दिव्य विहार करने की शिक्षा दे दी। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि जब तुम्हारा सर्वस्व लुट गया तब भला आँखों से अश्रुधारा क्यों न निकले।
(प्रेम रस मदिरा:-विरह–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।
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