अरे कृत्घन मन! धिक्कार है तुझे! जिन्होने तुझ नीच,अकिंचन व अधम को अपने श्री चरणों में स्थान दिया,तूने उस शरण्य की कृपा को भुला दिया। उनको ही दु:खी करने लगा। सच है जहाँ उन्होनें कृपालुता,क्षमाशीलता की पराकाष्ठा की है,वहीं तूने अधमता व अपराधशीलता की पराकाष्ठा की है। क्यों न आज से तू अपने प्यारे प्रभु को ही प्रसन्न करने का एक मात्र बीड़ा उठा कर चल। उसको प्रसन्न करने का एक मात्र यही उपाय है कि हम तुरंत यह प्रण करें कि " कोई हमसे कैसी भी कठोर से कठोर शब्दावली का प्रयोग करें,फिर भी उसके प्रति हम दुर्भावना आने ही न देंगे। सदा ही अपने दोषों को खोजकर उनको सुधारने में ही तत्पर रहेंगे।"
-------जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
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