सर्वप्रथम
यह विचार कीजिये कि संसार के किसी भी पदार्थ में आनन्द नहीं है। आप कहेंगे
कि हम लोगों को जब धन, पुत्र, स्त्री, पति आदि में आनन्द मिलता है तब
हमारी बुद्धि यह कैसे मान ले कि संसार में आनन्द नहीं है ? किन्तु
गम्भीरता-पूर्वक विचार करने पर बुद्धि अपना निश्चय बदल देगी। अच्छा यह
बताइये कि वह कौन सी वस्तु है जिसमें आनन्द है? यदि किसी एक वस्तु में
आनन्द होता तो एक तो वह आनन्द सबको मिलता, दूसरे उस आनन्द का वियोग न होता
अर्थात् उस पर दुःख का अधिकार न हो पाता। किन्तु ये दोनों ही बातें
किसी पदार्थ से सिद्ध नहीं होतीं। यथा, मदिरा को ही ले लीजिये। मदिरा के
नाम से एक घोर पियक्कड़ शराबी को आनन्द मिलता है, पुनः पीने से तो मिलता ही
होगा किन्तु उसी मदिरा से एक धर्मात्मा पंडित को महान अशान्ति होती है।
यदि खाने के साथ शराबी के आगे शराब रख दी जाय तो वह बहुत खुश होगा जबकि वह
कर्मकांडी पंडित बहुत दुःखी होगा। तो शराब में शराबी के अनुभव में आने वाला
सुख है या पंडित जी के अनुभव में आने वाला दुःख है ? यदि आप कहें कि पंडित
जी ने शराब को पिया नहीं, देखकर ही अशान्त हो रहे हैं, यदि पीते तो उन्हें
भी शराबी की भाँति आनन्द ही मिलता, तो यह कहना भ्रान्तिजनक है, क्योंकि
यदि पंडित जी को शराब पिला दी जाय तो उल्टी हो जायगी और शायद धर्म के नाते
जीवन भर दुःखी रहेंगे।
प्रेम रस सिद्धान्त,
रचयिता- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
संस्करण 2010, अध्याय 3: आत्म-स्वरूप, संसार का स्वरूप तथा वैराग्य का स्वरूप, पृ. 58
रचयिता- जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।
संस्करण 2010, अध्याय 3: आत्म-स्वरूप, संसार का स्वरूप तथा वैराग्य का स्वरूप, पृ. 58
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