Friday, March 11, 2016

क्या आप लोग एक दिन भी वस्त्र पहनना भूलते हैं घर से बाहर निकलते समय?
कभी नहीं भूलते....!
इसी प्रकार भगवान को भी सदा याद रखना होगा। यदि एक क्षण के लिए भी मन से भूल गए तो पाप करने लगेंगे हम लोग। हर समय, हर स्थान पे ये स्मरण बना रहे मन में कि हरि/गुरु सदा हमारे विचारों को नोट कर रहे हैं। अगर कोई केवल इतना ही कर ले तो भगवत प्राप्ति हो जाये और कोई साधना करने की आवश्यकता ही नहीं है।

......जगदगुरु श्री कृपालुजी महाराज।

'आज' नहीं 'कल' कर लेंगे,बस वो कर ले,बस ये कर लें,बस फिर भजन करेंगे.......इस प्रकार अनंत जन्म गँवा दिये लेकिन वह 'आज' और वो 'कल' कभी ना आ सका।
.........श्री महाराजजी।
लोक हानि में संसारी वस्तुओं के अभाव में चिन्ता मत करो। कभी - कभी भगवान् लोक हानि जान बुझकर देते हैं।
भगवान् कहते हैं कि मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूँ , उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ। वास्तव में तो संसार का जितना भी अभाव है वो भगवत कृपा ही है। भगवान् को यह चिन्ता होती है कि हमारा भक्त कहीं उसमें उलझ न जाये।

------सुश्री श्रीधरी दीदी (प्रचारिका),जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज।

हे जगद्गुरुत्तम कृपालु महाप्रभु!
आपने अपने अथक प्रयासों से अध्यात्म जगत में व्याप्त मत-मतान्तरों का सुन्दर समन्वय कर समस्त विरोधाभासों को दूर किया है। सिद्धांत पक्ष को इतना सरल, सारगर्भित एवं सर्वसुगम बना दिया है कि आपको सुनने के बाद कोई भी व्यक्ति अपने आप को वेद-निष्णात से कम नहीं समझता। फिर उस व्यक्ति के लिए उलझन नाम की कोई चीज़ ही नहीं रह जाती है।
आप न केवल सैद्धांतिक पक्ष को जनमानस में पक्का करते है अपितु स्वयं अपने निर्देशन में व्यावहारिक साधना भी कराते है।आप जीव मात्र के कल्याण हेतु निशि-दिन प्रयत्नरत है।
आप भक्तियोगरसावतार है अतः हम सबके लिए साधन एवं साध्य भी आप ही है।
आपने इस धराधाम पर अवतार लेकर अपना नाम, रूप, गुण, लीला, धाम, जन आदि देकर हम अधमों पर 'गुरु' कृपा की है जिसका अवलंब लेकर हम अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते है। सम्पूर्ण विश्व आपकी कृपाओं का सदैव ऋणी रहेगा।

बोलिये "अलबेली सरकार की जय।"
जय श्री राधे।

सोचो! साथ क्या जायेगा।
.....श्री महाराजजी।

Wednesday, March 2, 2016

Every individual soul is an eternal part of God.
हर व्यक्ति की आत्मा ईश्वर का एक शाश्वत हिस्सा है।
......श्री महाराज जी।
जब तक माया के अधीन हो तब तक क्यों सोचते हो कि मैं प्रशंसा के योग्य हूँ । जब तक तुम शरणागत नहीं हुए तब तक तुम्हे अहंकार किस बात का ? किसी भी जीव का वास्तविक स्वरूप श्री कृष्ण दासत्व ही है । श्री कृष्ण के दास बन जाओ फिर खूब अहंकार करो । हम छूट देते हैं ।लेकिन उस समय तुम अहंकार कर ही नहीं सकते। भगवत्प्राप्ति से पहले रहता है अहंकार। अतः सदा सावधान रहो।
---------जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु।
कोई महापुरुष हो , चाहे राक्षस हो। अपने मन में दूसरे के प्रति हमेशा अच्छी भावना होनी चाहिये। जिससे अच्छे विचार अंतःकरण में आवें। वो जो है, वो तो रहेगा ही। वो राक्षस होगा, तो राक्षस रहेगा। महापुरुष होगा तो महापुरुष रहेगा। हम अपने अंदर अगर दुर्भावना लाते हैं तो हमने तो अपना अंतःकरण बिगाड़ लिया। अब भगवान् जो थोड़ा पैर रखे आने के लिए, एबाउट टर्न चल दिये। वो कहते हैं - क्योंकि तुम तो औरों को बुलाते हो , इसलिये मैं नहीं रहता ऐसे घर में।
!! जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज !!

श्रीकृष्ण भक्ति ही एकमात्र मार्ग है और कोई भी साधन अपेक्षित नहीं है, न जानने की जरूरत है, न सोचने की और उसमें कोई यह भी नहीं है कि श्रीकृष्ण भक्ति में या शरणागति में क्या- क्या करना होगा ? कुछ भी नहीं करना, केवल सोचना है। वो तो भाव के भूंखे हैं। वहाँ कुछ करना- वरना नहीं है।
भगवान कोई बनावट नहीं चाहता, कोई तरकीब ? कोई जंत्र, मंत्र, तंत्र, सबेरे चार बजे उठो कि छः बजे, कि पूरब की तरफ मुँह करो, कि पश्चिम की तरफ करो, इस आसन से बैठो, यह कपड़ा पहनो, नहाओ धोओ, कुछ कोई मतलब नहीं। केवल सच्चे मन से रोकर उसे पुकारो। बस वह आपके पास दौड़ा चला आएगा।
🌸 तजि दे छल छंदा, राधे राधे गोविंदा।🌸
🌸 भजि ले मति मन्दा, राधे राधे गोविंदा।।🌸


🌹🌹🌹🌹🌹🌹 राधे राधे 🌹🌹🌹🌹🌹🌹
🌼👉 प्रेम वह तत्व है जो प्रिय– प्रेमाश्रय को असाधारण सुख देता है। ' प्रेम से प्रिय को असाधारण सुख मिलता है।' इसके चार रहस्य हैं – 🌻1– ' प्रियसुखसुखित्वम् ' – प्रेम केवल प्रियतम के सुख
के लिए ही होता है।
🌻2– ' प्रियानुकूलाचरणम् ' – प्रेम में केवल प्रिय के ही
अनुकूल आचरण होता है।
🌻3– ' प्रियसुखामातिरिक्तकामराहित्यम् ' – प्रिय–सुख–
कामना के अतिरिक्त प्रेम में स्व–काम बिल्कुल नहीं
होता है।
🌻4– ' वाचामगोचरत्वम् ' – प्रेम वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं
किया जा सकता है, वह मूकास्वादवत् अनिवर्चनीय
होता है।
यही विशुद्ध गोपी प्रेम है।

अगर किसी वस्तु का उपयोग सही जगह नहीं किया तो गलत जगह उपयोग करना पड़ेगा नेचर का नियम है । अगर मन को आपने हरि गुरु में नहीं लगाया तो संसार में लगाना पड़ेगा । नेचर का नियम है । कोई भी चीज हो ये विश्व परिवर्तनीय है । ये बदलने वाला है , नश्वर है इसकी समाप्ति होना है ।
---- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महराज।
मृत्यु के आगे किसी का वश नहीं है । सीधे या टेढ़े । इसलिये हर समय सावधान रहना चाहिये । यह सावधानी है कि अगला क्षण न मिला तो ? सावधान रहो । तैयार रहो , तैयार रहो । भगवान् को न भूलो , ताकि अन्तिम समय में भगवान् का स्मरण रहे , तो भगवान् के लोक में जायें । हम अगर दिन भर , भगवान् का स्मरण करते हैं और चौबीस घंटे में बस दो मिनट पहले भगवान् को भूल करके माँ , बाप , बेटा , स्त्री , पति का स्मरण करने लगे और मर गये तो -
यं यं वापि स्मरंभाव त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।

( गीता 6-8 )
जड़ भरत सरीखे परमहंस मरते समय हिरन का स्मरण करके मरे , तो हिरन बनना पड़ा। परमहंसों का यह हाल है, तो मायाबद्ध का क्या होगा ?
----- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज।
●जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी के श्रीमुख से●
दुर्वासा चिल्ला रहे हैं सारे देश में चौराहे पर खड़े हो करके, मुझे कोई गुरु बना लो, मेरा कोई चेला बन जाओ। लेकिन याद रखो अगर चेला बनने के बाद सेवा में कोई गड़बड़ हुई तो खैरियत नहीं होगी यह नारा लग रहा है। अब दुर्वासा का नाम सब जानते थे कि बड़े भारी महापुरुष हैं सबको पता है । बड़ी पॉवर है। गली - गली में विख्यात हैं। लेकिन जो वर्ना कह दिया कि अगर किसी ने सेवा में गड़बड़ी की उसने कहा भैया बिना गुरु के ही ठीक है । क्योंकि सेवा में गड़बड़ हो ही जायगी, संसारी जीव कौन सेवा का दावा कर सकता है ।
अस्तु दुर्वासा के नारा लगाने पर एक भी तैयार नही हुआ शिष्य बनने को । तो दुर्वासा गये द्वारिका । द्वारिका में सब महापुरुष ही महापुरुष हैं और भगवान् तो हैं ही हैं । उनकी सारी बीबियाँ सब महापुरुष ही हैं और माया का सवाल ही पैदा नहीं होता, लेकिन वहाँ भी अगर सेवा में गड़बड़ की तो दण्ड मिलेगा । जब ये वाक्य सुना लोगों ने कहा भई ठीक है ठीक है, आप आगे जाइये और कोई चेला ढूढिये । श्रीकृष्ण ने सुना एक दूत ने आकर बताया कि सरकार एक ऐसा-ऐसा फकीर आया है वो ऐसे चिल्ला रहा है। और कहता है हमारा नाम दुर्वासा है । तो उन्होंने कहा - अरे बुला लाओ , बुला लाओ । हम शिष्य बनेंगे उनके।
एक शिष्य बनने को तैयार हुए । वह जगद्गुरु श्रीकृष्ण आज शिष्य बनने जा रहे हैं । दुर्वासा के । और कौन हिम्मत करे ? ले आये महल में ठहरा दिया और पच्चीस - पचास लड़कियां सेवा में कर दिया दिया दुर्वासा के । बड़ी एक्सपर्ट लडकियाँ जो थीं सेवा में स्पेशल क्लास की । तो दुर्वासा ने कहा कि भई मैं तो खीर खाऊँगा । तो रुक्मिणी ने कहा ये कैसे बाबा जी हैं ? अरे बाबा जो कोई आता है तो उसको जो मिल जाय खा लेना चाहिये । मैं खीर खाऊंगा , हलुआ खाऊंगा । हाँ । पहले ही पहले । कोई बेतकल्लुफी हो जाय घर में , किसी गृहस्थी के घर तो बाबा जी लोग कुछ कह भी देते हैं और वह इस बहाने से कहते हैं कि आज तो हमारे गोपाल जी तस्मई खायेंगे । वह जो पत्थर के गोपाल जी लिये रहते हैं न उन्ही को बहाना ले लेकर के बाबा लोग खूब मालटाल खाते हैं । आप लोगों में से शायद किसी को अनुभव हो और वैसे भी बेतकल्लुफी हो जाने पर संसार में लोग कह देते हैं , लेकिन पहली बार में ऐसी बात करें ए ए श्रीकृष्ण ! मैं खीर खाऊँगा । हाँ महाराज जी ! जैसी आज्ञा । रुक्मिणी खीर लाओ । महालक्ष्मी की अवतार वहाँ क्या कमी है ? वहाँ कौन सा प्रश्न है आज चीनी नहीं है , आज दूध नहीं है , जरा दस मिनट रुक जाओ , ये सब सवाल नहीं है । ए खीर ! ए खीर आ गयी । सब सिद्धियाँ वहाँ नौकरानी हैं रुक्मिणी की । एक आध गस्सा खाया वाया और श्रीकृष्ण से कहा ए इस खीर को पोत लो अपने शरीर में । रुक्मिणी देख रही हैं कि क्या बाबा हैं और इनका दिमांग खराब है कि चुपचाप सुने जा रहे हैं सब । हाँ । सारे शरीर में श्रीकृष्ण ने अपने पोत दिया खीर। उसके बाद कहा - ये रुक्मिणी इधर आ । रुक्मिणी ने कहा मेरी भी शामत आई है बाबा हमको भी बुला रहा है । हाँ । अरे भई ये तो पुरुष हैं ठीक हैं । इनको कुछ भी बुलावें , हमको क्यों बुला रहे हैं बाबा जी । बैठाया और खीर अपने हाँथ से ले के उसके सारे शरीर में पोता रुक्मिणी के । अब बिचारी संकोच कर रही है स्त्री शरीर है । ठीक है श्रीकृष्ण चुप हैं तो बेचारी वह क्या बोले ? उसके बाद गये अपने जिस महल में ठहरे थे उसमें आग लगा दिया । वो जलने लगा । सब नौकरानियाँ भागीं । अरे वो पागल बाबा आया है उसने आग लगा दिया ( हंसी ) लेकिन अब श्रीकृष्ण से कौन बोले ठीक है भई वह कहते हैं हम गुरु बनायेंगे तो कौन बोले नौकर चाकर की हिम्मत क्या । अरे कृष्ण जरा मैं घूमने चलूँगा रथ तैयार करो । देखो रथ में घोड़े नहीं रहेंगे एक तरफ तुम , एक तरफ रुक्मिणी । रुक्मिणी ने कहा और लो , जो कसर है बाकी , पूरी हो गयी । अब घोड़ा बनना पड़ेगा हमको । और बैठ गये ठाठ से रथ के ऊपर , कोड़ा लेकर हाँथ में चाबुक और रथ लेकर चले दोनों , लेकिन रुक्मिणी तो कमजोर पड़ती थी बेचारी , अरे सोचो महालक्ष्मी की अवतार , इतनी कोमलांगी जो कमलासन कहलाती हैं कमल के ऊपर उनके चरण का निचला भाग रहता है हमेशा कमल की पंखुड़ियों के ऊपर । वह रथ लेकर चले नंगे पाँव , चप्पल नहीं पहन सकते गुरु को ले जाना है चप्पल वप्पल नहीं चलेगा , तो कुछ दूर चली उसके बाद कन्धा उनका यों यों होने लगा नीचे । जब एक तरफ का बैल गड़बड़ करे तो दूसरी तरफ का बैल क्या करेगा अकेला ? तो चाबुक मारा रुक्मिणी को । और श्रीकृष्ण अपना चुपचाप बड़े विभोर हो रहे हैं ( हंसी ) श्रीकृष्ण ने कहा - महाराज ! ये शिष्य नहीं बन सकती , मैं अकेला रथ ले चलूँगा आपका । बताइए कितनी स्पीड में ले चलूँ और कहाँ ले चलूँ ? किस लोक में ? तो देखा दुर्वासा ने और कहा कि हाँ ठीक है , ठीक है , तू पास हो गया । कहीं जाना वाना हमको नहीं था । ये सब विपरीत व्यवहार मेरी एक्टिंग थी ! जा तू पास हो गया । लेकिन तूने एक गलती किया है । हैं महाराज ! हमसे भी गलती हो गयी ? हाँ हो गयी । क्या गलती किया महाराज ! हमने कहा था सारे शरीर में खीर पोत लेना तुमने तलवे में नहीं पोता , उसी तलवे में तेरे बाण लगेगा , अन्तिम समय में । तूने मेरी आज्ञा पूरी - पूरी नहीं मानी । सारे शरीर में प्रत्येक अंग में खीर पोता , तलवे में नहीं पोता । यह बता रहा हूँ जो वेद की कथा है । कोई कहानी वहानी यहाँ वहाँ की नहीं है । सत्य कथा बता रहा हूँ ।
तो ये विपरीत व्यवहार करते हैं महापुरुष लोग । प्राचीन काल में तो नाइंटी नाइन परसेंट यही हुआ करता था लेकिन अब इस युग में तुलसी , सूर , मीरा , कबीर , नानक तुकाराम तमाम संत हुए उन्होंने समय - समय पर किया , ज्यादा नहीं किया क्योंकि जीव कल्याण करने के लिए सोचना पड़ता है कि भई इनकी योग्यता ऐसी नहीं है सहन करने की । कभी - कभी मूड में आ जाने पर कर देते हैं । थोड़ा समझने के लिए कि भई कुछ थ्योरी समझता भी है कि नहीं ये । खाली सिर हिलाता है लेक्चर में बैठकर ये ।
----- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज।
प्यार तीन प्रकार का होता है । मोटी अकल से समझे रहो हमेशा के लिये । एक भीतर भी प्यार हो बाहर भी प्यार हो ठीक-ठीक और एक भीतर प्यार हो लेकिन बाहर आउट न किया जाय और तीसरा प्यार एक और होता है भीतर प्यार हो सेंट परसेंट लेकिन बाहर विपरीत व्यवहार किया जाय । इसमें तीसरा वाला तो महापुरुष के लिये खिलवाड़ है , भगवान् के लिये खिलवाड़ है । वह तो विनोदी है न , करते रहते हैं जान बूझकर चिढ़ाने के लिये कि देखें इसका प्यार सच्चा है कि कच्चा है । उल्टा व्यवहार करेंगे । अब अगर आप सचमुच प्यार करते हैं , तब तो आप मुस्कुरा देंगे । ठीक है , ठीक है , ठीक है । जब श्रीकृष्ण नें उल्टा व्यवहार किया भीष्म पितामह के साथ , चक्र लेकर दौड़े रथ का पहिया मारने के लिये , तो भीष्म पितामह हंसने लगे , गुस्सा नहीं किया और कहा , आओ आओ न , खड़े क्यों हो गये ? जरा देखें तुम्हारी हिम्मत हो तो आगे आओ ।
अब बताओ शत्रु इतना बड़ा शत्रु जिसके संकल्प से अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड भस्म हो जायें , वह गुस्से में भौंहे ताने , दांत पीसते हुये , पसीना-पसीना लहू लुहान , सारे शरीर से खून बह रहा है , सारे शरीर को छेद डाला भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण , अर्जुन दोनों के शरीर को । इतनी भयानक स्थिति में भी और भगवान् क्रोध की अन्तिम सीमा में एक्टिंग करते हुये , रथ की पहिया लेकर दौड़े सीना तानकर और भीष्म पितामह हंस रहे थे और कहते हैं यह एक्टिंग किसी और के साथ करना , मैं सब जानता हूँ , आओ आगे आओ , एक कदम चलकर रुक क्यों गये ? हमको सब पता है । अन्दर प्यार भरे हैं भीष्म पितामह के प्रति अनन्त और बाहर से ये विरोध की एक्टिंग कर रहे हैं विपरीत व्यवहार । और इसी विरोधी विपरीत व्यवहार वाली मुद्रा का ही ध्यान करते हुए शरशैय्या पर भीष्म पितामह छह महीने " वा पट पीत की फहरान " वह नहीं भूलती । पीताम्बर फहरा रहा है और भौहें तनी हैं और दांत पीस रहे हैं । क्या बढ़िया झाँकी है बड़ी अच्छी एक्टिंग कर लेते हैं ।
तो विपरीत व्यवहार जो करता है आम तौर से जो करता है वह अनुकूल व्यवहार करे तो समझो भारी कृपा है वरना तो उसको विपरीत व्यवहार करना ही चाहिये क्योंकि वह, क्योंकि वह क्या बतावें , क्योंकि गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः रसिकों के जगत में उनको आदेश है कि प्रेम को छुपाओ छुपाओ छुपाओ । और छुपाने का क्या तरीका है ? उल्टा व्यवहार करो । बस कोई नहीं जानेगा ।
----- जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज।
गौरांग महाप्रभु के समय में एक साधक था । उसको आंसू नहीं आते थे । उसको बड़ी फीलिंग हुआ करती थी कि सब आंसू बहा रहे हैं और मैं इतना अधम हूँ , इतना पतित हूँ । तो उसने अपना मिर्ची लिया और धोती के कपड़े में बांध करके उस मिर्ची को आँख से लगावे और उससे अपना पानी निकलेगा ही । तो किसी ने देख लिया कि रोज ये करता है कि हाँथ में लेकर के आँख में लगाता है और वो चीज पकड़ ली , देखा तो उसमें मिर्ची है , लाल मिर्चा । वो भाग करके महाप्रभु जी के पास गया कि महाराज जी देखिये इतना दम्भ हो रहा है आपके यहाँ । उन्होंने कहा , बुलाओ उसको । आया । पूंछा उससे , क्यों भाई तुम ऐसा क्यों करते हो ? हमने ये तो नहीं कहा कि तुम पाखण्ड करो इस प्रकार से मिर्ची लगा करके । उसने कहा महाराज जी मैं क्या करूं कई दिन से परेशान हूँ । मुझे नींद तक नहीं आती इस चिन्तन में , टेंशन में कि मुझे संकीर्तन में आँसू नहीं आते । तो इस प्रकार जब महाप्रभु जी से उसने कहा तो महाप्रभु जी ने दौड़कर उसको चिपटा लिया ।
अब शिकायत करने वाला दंग रह गया , कि सत्संग से इसको निकाल देना चाहिए इसके बजाय इसको चिपटा रहे हैं ! उन्होंने शिकायत करने वाले को डाँटा , एक बात बताओ जी तुम साधना करने आते हो , यहाँ कहते हैं राधाकृष्ण का ध्यान करो और तुम इस आदमी को देखते रहते हो कि ये पोटली लिये कैसे आँख में लगा रहा है ? क्या कर रहा है ? तुम इंस्पेक्शन करने आते हो यहाँ ? तुम बड़े अपराधी हो । ये बिलकुल अपराधी नहीं है , क्योंकि इसका लक्ष्य लोकरंजन का नहीं है । ये अपराधी तब होता जब लोकरंजन का लक्ष्य रखता अर्थात मिर्ची लगा करके आँसू बहा करके किसी को प्रभावित करके उससे कोई स्वार्थ सिद्धि चाहता , ये लक्ष्य बनाए होता अपना , तब तो ये दोषी था । ये तो अपने आप को दण्ड दे रहा है फील करके कि मेरे आँसू क्यों नहीं आते , और ये फीलिंग ऐसी है कि अगर थोड़े दिन भी ऐसी फीलिंग हो जायेगी तो ये फीलिंग ऐसी है कि अगर थोड़े दिन भी ऐसी फीलिंग हो जायेगी तो ये अपने लक्ष्य में सफल हो जायेगा ।
---- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज।