जगद्गुरु
श्री कृपालु जी महाराज ने अपने दिव्य प्रवचनों के द्वारा समस्त वेदों -
शास्त्रों के वास्तविक रहस्यों को अत्यंत सरल और सारगर्भित शैली में
उद्घाटित किया है । वास्तव में श्री महाराजजी का दिव्य अवतरण इस कलिकाल में
इसीलिए हुआ है क्योंकि विभिन्न मत और सम्प्रदायों ने अपने अपने मतानुसार
शास्त्रों वेदों की अनेक परस्पर विरोधी व्याख्याएं करके साधारण आस्तिक जनता
को भ्रमित ही करने का कार्य किया है ।भक्ति का वास्तविक स्वरूप ,कर्म
-धर्म ,ज्ञानयोग और मोक्ष आदि की जो अनेकानेक परस्पर विरोधी व्याख्याएं की
गई हैं ,श्री महाराज जी ने सभी का समन्वय करके एक मात्र 'भक्तिमार्ग' की ही
श्रेष्ठता प्रतिपादित की है । इसी योग्यता के कारण श्री महाराजजी को
"निखिल दर्शन समन्वयाचार्य " की उपाधि से अलंकृत किया गया ।
समस्त शास्त्र -वेदों का अर्थ इतने विशद रूप में पहली बार पब्लिक के बीच में उनकी ही सरल भाषा में श्री महाराजजी ने सहज ही प्रकट किया है ।
इसके बावजूद भी कुछ तथाकथित सम्प्रदायवादियों को आपत्ति है कि श्री महाराज जी ने पूर्व वर्ती जगद्गुरुओं की भांति ब्रह्म सूत्र ,उपनिषदों तथा श्रीमदभगवद्गीता आदि का भाष्य नहीं किया ।
श्री महाराज जी द्वारा जो दिव्यातिदिव्य तत्वज्ञान अपने अनगिनत प्रवचनों के माध्यम से जन साधारण को प्रदान किया गया वह क्या किसी भी भाष्य से कम है ।अनेकानेक पद संकीर्तन आदि चलते फिरते ही श्री महाराजजी ने सहज ही भावावेश की अवस्था में प्रकट किये हैं उनमे जो अनुभूति की तीव्रता है जो सरसता है जो विलक्षणता है उस रस की तुलना क्या किसी भाष्य से हो सकती है ?
श्री महाराज जी ने अपनी दिव्य वाणी के द्वारा जिन शास्त्र वेदों के निगूढतम सिद्धांतों को प्रकट किया है उनका स्थान कोई भी भाष्य नही ले सकता ।
स्वयं वेद व्यास जी ने श्रीमद्भागवत के विषय में लिखा -'अर्थोsयं ब्रह्म सूत्राणाम्' ।।
फिर ब्रह्म सूत्रों पर अन्य किसी भाष्य की क्या आवश्यकता है ।श्री महाराजजी ने अनेक बार इस तथ्य को अपने प्रवचनों में उल्लिखित किया है ।
प्रत्येक महापुरुष का प्राकट्य देश काल तथा युग धर्म की परिस्थतियो के अनुकूल होता है ।पूर्व वर्ती जगद्गुरुओ ने तमाम भाष्य लिखे वह उस युग के अनुकूल रहा होगा लेकिन क्या वर्तमान काल में उस शैली के संस्कृत भाष्य, तत्व जिज्ञासु लोगो को कुछ लाभ दे पायेंगे। वे तो बस पोथियो की ही शोभा बढ़ाएंगे ।
दूसरी बात है 'परम्परा और सम्प्रदाय' की श्री महाराजजी ने अनेको बार इस बात को दोहराया है कि दो ही सम्प्रदाय हैं -एक माया का यह 'भौतिकतावादी सम्प्रदाय' जिसमे फंसा हुआ जीव अनादि काल से ठोकरे खा रहा है और दूसरा है 'भगवदीय सम्प्रदाय' । इसी को कठोपनिषद में "प्रेय मार्ग और श्रेय मार्ग" कहा गया है - "अन्य च्छ्रेयोsयुदुतैव प्रेयस्ते नानार्भे पुरुषं सिनीत:॥
तयो श्रेय आददानस्य साधु भवति दीयतेsर्थाद्य प्रेयो वृणीते"।।
कबीर ने भी कितना सुन्दर कहा है -
'पखा पखी के कारने सब जग रहा भुलान निरपख हो के हरि भजे सोई संत सुजान' ।।
अर्थात पक्ष विपक्ष मत मतांतरों और सम्प्रदायो के झगड़ो में सारा जगत उलझा हुआ है । जो इन झगड़ो से परे रहकर अनन्य भाव से हरि का भजन करता है वही वास्तविक संत होता है ।
तो हमारे श्री महाराजजी ऐसे ही निरपख संत सुजान हैं ।। वे किसी बाहरी दिखावे या बंधन के आधीन नहीं है । उन्होंने तो जीवन पर्यन्त मुक्त हस्त से हम कलिमल ग्रसित अधम जीवों पर अपनी करुणा और कृपा की निरंतर वर्षा की है और आज भी हम सबके हृदय में बसे हुए हैं । सूर्य के तेज को कोई डिबिया में बंद नहीं कर सकता ऐसे ही श्री महाराजजी के दिव्य व्यक्तित्व और कृतित्व को कोई किसी उपाधि परम्परा या सम्प्रदाय में नहीं समेट सकता
।।राधे -राधे ।।
श्रीमद्सद्गुरु सरकार की जय।
समस्त शास्त्र -वेदों का अर्थ इतने विशद रूप में पहली बार पब्लिक के बीच में उनकी ही सरल भाषा में श्री महाराजजी ने सहज ही प्रकट किया है ।
इसके बावजूद भी कुछ तथाकथित सम्प्रदायवादियों को आपत्ति है कि श्री महाराज जी ने पूर्व वर्ती जगद्गुरुओं की भांति ब्रह्म सूत्र ,उपनिषदों तथा श्रीमदभगवद्गीता आदि का भाष्य नहीं किया ।
श्री महाराज जी द्वारा जो दिव्यातिदिव्य तत्वज्ञान अपने अनगिनत प्रवचनों के माध्यम से जन साधारण को प्रदान किया गया वह क्या किसी भी भाष्य से कम है ।अनेकानेक पद संकीर्तन आदि चलते फिरते ही श्री महाराजजी ने सहज ही भावावेश की अवस्था में प्रकट किये हैं उनमे जो अनुभूति की तीव्रता है जो सरसता है जो विलक्षणता है उस रस की तुलना क्या किसी भाष्य से हो सकती है ?
श्री महाराज जी ने अपनी दिव्य वाणी के द्वारा जिन शास्त्र वेदों के निगूढतम सिद्धांतों को प्रकट किया है उनका स्थान कोई भी भाष्य नही ले सकता ।
स्वयं वेद व्यास जी ने श्रीमद्भागवत के विषय में लिखा -'अर्थोsयं ब्रह्म सूत्राणाम्' ।।
फिर ब्रह्म सूत्रों पर अन्य किसी भाष्य की क्या आवश्यकता है ।श्री महाराजजी ने अनेक बार इस तथ्य को अपने प्रवचनों में उल्लिखित किया है ।
प्रत्येक महापुरुष का प्राकट्य देश काल तथा युग धर्म की परिस्थतियो के अनुकूल होता है ।पूर्व वर्ती जगद्गुरुओ ने तमाम भाष्य लिखे वह उस युग के अनुकूल रहा होगा लेकिन क्या वर्तमान काल में उस शैली के संस्कृत भाष्य, तत्व जिज्ञासु लोगो को कुछ लाभ दे पायेंगे। वे तो बस पोथियो की ही शोभा बढ़ाएंगे ।
दूसरी बात है 'परम्परा और सम्प्रदाय' की श्री महाराजजी ने अनेको बार इस बात को दोहराया है कि दो ही सम्प्रदाय हैं -एक माया का यह 'भौतिकतावादी सम्प्रदाय' जिसमे फंसा हुआ जीव अनादि काल से ठोकरे खा रहा है और दूसरा है 'भगवदीय सम्प्रदाय' । इसी को कठोपनिषद में "प्रेय मार्ग और श्रेय मार्ग" कहा गया है - "अन्य च्छ्रेयोsयुदुतैव प्रेयस्ते नानार्भे पुरुषं सिनीत:॥
तयो श्रेय आददानस्य साधु भवति दीयतेsर्थाद्य प्रेयो वृणीते"।।
कबीर ने भी कितना सुन्दर कहा है -
'पखा पखी के कारने सब जग रहा भुलान निरपख हो के हरि भजे सोई संत सुजान' ।।
अर्थात पक्ष विपक्ष मत मतांतरों और सम्प्रदायो के झगड़ो में सारा जगत उलझा हुआ है । जो इन झगड़ो से परे रहकर अनन्य भाव से हरि का भजन करता है वही वास्तविक संत होता है ।
तो हमारे श्री महाराजजी ऐसे ही निरपख संत सुजान हैं ।। वे किसी बाहरी दिखावे या बंधन के आधीन नहीं है । उन्होंने तो जीवन पर्यन्त मुक्त हस्त से हम कलिमल ग्रसित अधम जीवों पर अपनी करुणा और कृपा की निरंतर वर्षा की है और आज भी हम सबके हृदय में बसे हुए हैं । सूर्य के तेज को कोई डिबिया में बंद नहीं कर सकता ऐसे ही श्री महाराजजी के दिव्य व्यक्तित्व और कृतित्व को कोई किसी उपाधि परम्परा या सम्प्रदाय में नहीं समेट सकता
।।राधे -राधे ।।
श्रीमद्सद्गुरु सरकार की जय।
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