गागरि मोरि मारी काँकरी।
हौं दधि बेचन जाति रही सखि! घूँघट-पट मुख ढाँक री।
तू तो जानति सखी! डगर महँ, परति खोरि इक साँकरी।
मारि दई काँकरि पाछे ते, पुनि लंपट सोँ झाँकरी।
भई विभोर यदपि लखि छलिया, तदपि न मुख ते हाँ करी।
जैसी करी ‘कृपालु’ हरी तस, अब लौं नहि कोउ ह्याँ करी।।
हौं दधि बेचन जाति रही सखि! घूँघट-पट मुख ढाँक री।
तू तो जानति सखी! डगर महँ, परति खोरि इक साँकरी।
मारि दई काँकरि पाछे ते, पुनि लंपट सोँ झाँकरी।
भई विभोर यदपि लखि छलिया, तदपि न मुख ते हाँ करी।
जैसी करी ‘कृपालु’ हरी तस, अब लौं नहि कोउ ह्याँ करी।।
भावार्थ:- एक सखी अपनी अन्तरंग सखी से कहती है अरी सखी! मैं घूँघट काढ़े हुए दही बेचने जा रही थी। तू तो जानती ही है कि मार्ग में साँकरी खोर पड़ती है, वहीं पर श्यामसुन्दर ने मेरे घड़े में पीछे से कंकड़ी मार दी एवं लंपट की तरह मेरी ओर देखने लगा। मैं भी उस छलिया को देखकर यद्यपि विभोर हो गयी फिर भी मुख से कुछ स्वीकार नहीं किया। ‘श्री कृपालु जी’ के शब्दों में सखी कहती है कि जैसी अंधेर श्यामसुन्दर ने की, ऐसी आज तक ब्रज में किसी ने नहीं की।
(प्रेम रस मदिरा:- मिलन-माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:- राधा गोविन्द समिति।
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