बड़ो कब ह्वैहैं हमरो लाल।
कब चलिहहिं घुटुवन बल आँगन, करिहैं हमहिं निहाल।
कब कर–अँगुरि पकरि ह्वै ठाढ़ो, चलिहैं लटपट चाल।
कब तुतरिन बतियन कछु मोते, बोलिहहिं वचन रसाल।
कब दृग जल भरि मम अंचल गहि, कछु माँगिहहिं गोपाल।
कब ‘कृपालु’ मोते कह ‘मैया,’ इमि कहि चूमति गाल।।
कब चलिहहिं घुटुवन बल आँगन, करिहैं हमहिं निहाल।
कब कर–अँगुरि पकरि ह्वै ठाढ़ो, चलिहैं लटपट चाल।
कब तुतरिन बतियन कछु मोते, बोलिहहिं वचन रसाल।
कब दृग जल भरि मम अंचल गहि, कछु माँगिहहिं गोपाल।
कब ‘कृपालु’ मोते कह ‘मैया,’ इमि कहि चूमति गाल।।
भावार्थ:– यशोदा अपने लाल को गोद में लेकर वात्सल्य–प्रेम में विभोर होकर विधाता से कामना करती हैं,और कहती हैं कि वह दिन कब आयेगा जब मेरे लाल बड़े हो जायेंगे। कब हमारे आँगन में घुटनों के बल चलते हुए हमें निहाल करेंगे। कब हमारे हाथ की अँगुलियों के सहारे खड़े होकर लड़खड़ाते हुए चलेंगे। कब हमसे तोतली भाषा में मधुर–मधुर बाल–विनोद–युक्त बातें करेंगे। कब अपनी आँखों में आँसू भरकर हमारा अंचल पकड़े हुए कोई वस्तु माँगेंगे। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मुझे मेरा लाल कौन सी घड़ी में ‘मैया’ कहेगा? इसके पश्चात् वात्सल्य–प्रेम में विभोर यशोदा कुछ भी न कह सकी। इतना ही कहकर बार–बार अत्यन्त प्यार से अपने लाल के दोनों गाल चूमने लगीं।
(प्रेम रस मदिरा:-श्री कृष्ण–बाल लीला–माधुरी)
#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज।
सर्वाधिकार सुरक्षित:-राधा गोविन्द समिति।
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